Wednesday, April 29, 2009

न चाहते थे मगर वजूद में आना पड़ा हमें

न चाहते थे मगर वजूद में आना पड़ा हमें
खतायें थीं किसी की, सर झुकाना पड़ा हमें

जिस्म से खेलकर मेरे दरिंदे बरी हो गये
तोहमतों को मगर उम्र भर उठाना पड़ा हमें

रस्मों के नाम पर कभी, जुल्मों के नाम पर
सुलगती आग में खुद को जाना पड़ा हमें

दुआओं के शहर में भी तू नहीं था मेरे मौला,
हर बार वहाँ से खाली हाथ आना पड़ा हमें

फिर कोई बेटी न पैदा हो तेरी ज़मीन पर,
ये सोचकर शम-ए-हयात बुझाना पड़ा हमें

इस पेट के लिये तो कभी बच्चों के वास्ते,
जहाँ पे जाना पाप है, ’दर्द’ जाना पड़ा हमें।

--दिनेश 'दर्द'

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