मेरे कूचे में कदम आप जो आ कर रखते
हम भी राहों में दिल-ओ-जान बिछा कर रखते
तुम अगर इतनी इजाज़त हमें दे देते कभी
तेरी तस्वीर को हम दिल में सजा कर रखते
काश इज़हार-ए-वफ़ा कर दिया होता हम ने
यूँ ना जज़बात को हम दिल में दबा कर रखते
हमें मालूम जो होता तेरी साज़िश का कभी
हम रक़ीबों से भी कुछ बात बना कर रखते
मेरे इस दिल की तड़प तुम ने जो समझी होती
तुम कभी यूँ ना मुझे दूर हटा कर रखते
मिल ही जाती जो खबर गर तेरे आने की हमें
हम तेरे वास्ते कुछ सांस बचा कर रखते
इन सज़ाओं का तो मालूम नही था वरना
रोज़-ए-मेहशर के लिये करम कमा कर रखते
काश हम होते सुखनवार कभी असीम जैसे
अपने शेरों से दर-ओ-बाम हिला कर रखते
--असीम कौमी
No comments:
Post a Comment