Friday, November 29, 2013

मुसीबतों का पुलिंदा है इश्क,

मुसीबतों का पुलिंदा है इश्क,
मुसीबतों से ही जिंदा है इश्क..

ज़माने वालो हवाएं थामो,
हवा में उड़ता परिंदा है इश्क..

न जीने देता, न मरने देता,
अजीब वहशी दरिंदा है इश्क...

.....रजनीश सचान

मै तुझे मिल जो गया हूँ..

उसके दर पर जो गया हूँ,
बावला सा हो गया हूँ..

तू न समझेगी मुझे अब,
मै तुझे मिल जो गया हूँ...

.....रजनीश सचान

उससे जीतूँ भी तो हारा जाए ,

उससे जीतूँ भी तो हारा जाए ,
चैन जाए तो हमारा जाए ...

मैं भी तनहा हूँ खुदा भी तनहा,
वक़्त कुछ साथ गुज़ारा जाए ...

उसकी आवाज़ है आयत का सुकूँ,
उसकी हर बात पे वारा जाए ...

चाहे जितनी भी हसीं हो वो गली,
उसपे लानत जो दोबारा जाए ...

दिल जला है तो जिगर फूंक अपना,
दर्द को दर्द से मारा जाए ...

रूह घुट-घुट के न मर जाए कहीं,
अब तो ये जिस्म उतारा जाए ....

.....रजनीश सचान

रिश्ते अटूट भी देखना टूट जायेंगे

रिश्ते अटूट भी देखना टूट जायेंगे
रफ्ता रफ्ता सारे ग़म छूट जायेंगे

चलो देखते हैं आज बाज़ी पलट कर
जब वो आयेंगे तो हम रूठ जायेंगे

उठते तो है प्यार के पर उम्र कम है
बुलबुले ये ... हवा में फूट जायेंगे

नहीं होते इनके पांव तो क्या हुआ
देखना बहुत दूरतक ये झूठ जायेंगे

आएगा गुबार बाहर अश’आर बनकर
नीचे हलक़ के जब कुछ घूँट जायेंगे

तुम मुतमईन चुराकर दिल ‘अमित’ का
पर महफिलें तेरी ये हम लूट जायेंगे

--अमित हर्ष

है बेरुखी ये कहाँ तक जायज़

है बेरुखी ये कहाँ तक जायज़

हमें मरने से भी गुरेज़ नहीं

रजनीश सचान

Tuesday, November 26, 2013

हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

हादसे थे .…. कि हद से पार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

कुसूर इतना … कि सच कह दिया
जो कुछ था पता … सब कह दिया
गलती बस इतनी ... कि गलत नहीं किया
किसी पर भी ... हमने शक नहीं किया
अंजाम हुआ कि शक के दायरे में आ गए
अनकहे बयान हमारे .. चर्चे में आ गए

‘तर्क-ओ-दलील’ सारे तार तार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

पीड़ा पीड़ित की जाना ही नहीं कोई
टूटा है पहाड़ हमपे .. माना ही नहीं कोई
हँसती खिलखिलाती मासूम बेटी गंवा दी
हमने सारे जीवन की पूँजी गंवा दी
इल्ज़ाम ये है कि कुछ छुपा रहे है हम
क्या बचा है अब .. जो बचा रहे है हम

पल पल जिंदगी के .... उधार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

उम्मीद थी कि दुनिया ढाढस बंधाएगी
उबरने के इस गम के तरीके सुझायेगी
पर लोगो ने तो क्या क्या दास्ताँ गढ़ ली
जो लिखी न जाए, .. ऐसी कहानी पढ़ ली
मीडिया ने हमारे नाम की सुर्खिया चढ़ा ली
चैनलों ने भी लगे हाथ .... टीआरपी बढ़ा ली

अंदाज-ओ-अटकलों से रंगे अखबार हो गए
और हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

हँसती खेलती सी एक दुनिया थी हमारी
हम दो ..... और एक गुड़िया थी हमारी
दु:खों को खुशियों की खबर लग गई
जाने किस की नज़र लग गई
कुसूर ये जरूर कि हम जान नहीं पाए
शैतान हमारे बीच था, पहचान नहीं पाए
बगल कमरे में छटपटाती रही होगी
बचाने को लिए हमें बुलाती रही होगी
जाने किस नींद की आगोश में थे हम
खुली आँख ... फिर न होश में थे हम
ये ‘गुनाह’ हमारा ‘काबिल-ए-रहम’ नहीं है
पर मुनासिब नहीं कहना कि ... हमें गम नहीं है

खुद नज़र में अपनी .. शर्मसार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

पुलिस, मीडिया, अदालत से कोई गिला नहीं है
वो क्या कर रहे है ...... खुद उन्हें पता नहीं है
फजीहत से बचने को सबने .. फ़साने गढ़ दिए
इल्ज़ाम खुद की नाकामी के .. सर हमारे मढ़ दिए
‘अच्छा’ किसी को ... किसी को ‘बुरा’ बनाया गया
न मिला कोई तो हमें बलि का बकरा बनाया गया
असलीयत बेरहमी से मसल दी जाने लगी
फिर .. शक को सबूत की शकल दी जाने लगी

‘तथ्य’, .. ‘सत्य’ सारे निराधार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

सेक्स, वासना, भोग से क्यों उबर नहीं पाते
सीधी सरल बात क्यों हम कर नहीं पाते
बात अभी की नहीं ... हम अरसे से देखते है
हर घटना क्यों ... इसी चश्मे से देखते है
ईर्ष्या, हवस, बदले से भी ये काम हो सकते है
क़त्ल के लिए पहलू .. तमाम हो सकते है
जो मर गया उसे भी बख्शा नहीं गया
नज़र से अबतलक वो नक्शा नहीं गया
उम्र, रिश्ते, जज़्बात का लिहाज़ भी नहीं किया
कमाल ये कि .. किसी ने एतराज़ भी नहीं किया

कितने विकृत विषमय विचार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए

इन घिनौने इल्जामों को झुठलाना ही होगा
सच मामले का ... सामने लाना ही होगा
वरना संतुलन समाज का बिगड़ जाएगा
बच्चा घर में .. माँ बाप से डर जाएगा
कैसे कोई बेटी .... माँ के आँचल में सिमटेगी
पिता से कैसे .. खिलौनों की खातिर मचलेगी
गर .. साबित हुआ इल्ज़ाम तो ये समाज सहम जाएगा
रिश्तों का टूट ... हर तिलस्म जाएगा

बेमाने सारे रिश्ते नाते .. परिवार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए



~ ~ ~ { ...... “तलवार दम्पति” के दर्द को समर्पित ....... } ~ ~ ~


--अमित हर्ष

Wednesday, November 13, 2013

बड़ी गुस्ताख है तेरी यादें इन्हें तमीज सिखा दो

बड़ी गुस्ताख है तेरी यादें इन्हें तमीज सिखा दो
दस्तक भी नहीं देती और दिल में उतर आती हैं

--अज्ञात

Tuesday, November 12, 2013

कहाँ तक ठीक है मजबूर रहना ..

तुम्हारे रास्तो से दूर रहना ...
कहाँ तक ठीक है मजबूर रहना ..

सभी के बस की बात थोड़ी है ..
नशे में इस कदर भी चूर रहना ..

न जाने किस कदम पे छोड़ेगी ..
हमारे साथ रहके दूर रहना ...

तुम्हारी याद ही तो जानती है ..
मेरे कमरे बनके नूर रहना ...

सच तो ये है मेरी तमन्ना थी ..
तुम्हारी मांग का सिंदूर रहना ..

जो मेरे पास आना चाहती है ..
वो ही कहती है मुझसे दूर रहना ...

तो क्या ठीक है मेरे दिल में ...
तुम्हारा बनके यूं नासूर रहना ..

मुझसे पूछो के इतने पत्थरो में..
कितना मुश्किल है कोहिनूर रहना ..

उसकी आदत में आ गया है अब ...
हमारे नाम से मशहूर रहना ...

मैंने तो सिर्फ इतना जाना है ...
बड़ा मुश्किल है तुझसे दूर रहना ..

कभी इसा कभी सुखरात बनना ..
कभी सरमद कभी मंसूर रहना ..

ये शायरी नहीं तज्जली है ..
ज़हन ऐसे ही कोहेतूर रहना ..

'सतलज' हम तुझे पहचानते हैं ..
तुझे हक है युही मगरूर रहना .

--सतलज राहत

Tuesday, November 5, 2013

पढ़ने वाले भी लेकिन बच्चे नही है

हाँ किरदार कहानी के सच्चे नही है
पढ़ने वाले भी लेकिन बच्चे नही है

जिसके दामन पे लगे वही जानता है
दाग कैसे भी लगे, अच्छे नही है

--अमोल सरोज