Sunday, December 26, 2010

विधाता ने मुझको बनाया था जिस दिन

विधाता ने मुझको बनाया था जिस दिन
धरती पे भूंचाल आया था उस दिन
मुझे देख सूरज को गश आ गया था
मेरे रूप पर चाँद चकरा गया था
मैं तारीफ़ अपनी करूँ या खुदा की

पहली दफा हमेशा इनकार हुआ करती है

बिसात-ए-इश्क में हर दाव दिल से चला जाता है
ज़रा भी चूके कहीं, तो हार हुआ करती है

इजहार-ए-इश्क का सबक आप हम से लीजिए
पहली दफा हमेशा इनकार हुआ करती है

न हो इनकार तो होता इकरार भी नहीं
इस तरह की कशमकश कई बार हुआ करती है

अगर न बने बात तो बढ़कर हाथ ही थाम लो
जंग-ए-इश्क आर या पार हुआ करती है

गर न माने दिल ज़लालत से गिरने को
तो लिख कर बयाँ कर दो, फिर कलम ही आखिरी हथियार हुआ करती है :)

एक था और एक थी,

एक था और एक थी,
था ने थी से मोहब्बत की
अफसाना हो गया
दुश्मन सारा ज़माना हो गया
गली गली उन दो नामो के चर्चे
और दीवार दीवार पर उन्ही दो नामो के पर्चे
थी बेचारी क्या करे
जिए के मरे
कह न सकी, रह न सकी

Saturday, December 25, 2010

कोई शाम फिर, घर भी जाना था लेकिन ...

कोई शाम फिर, घर भी जाना था लेकिन ...
ये आवारगी तो, बहाना था लेकिन ...

महब्बत में माना, कि गम तो बहुत थे ...
महब्बत में कैसा.. ज़माना था लेकिन ...

उसे सब्र कि.. इंतिहा देखनी थी ...
मुझे ज़ुल्म को.. आज़्माना था लेकिन ...

मैं खामोश फिर, महफिलों में हुआ था ...
मेरा दर्द फिर, शायराना था लेकिन ...

मेरे बारिशों से, न थे राब्ते पर ...
शबो-रोज़ का.. आना जाना था लेकिन ...

[राब्ते=relations]

पुरानी दवा तो ज़हर की तरह है ...
मेरा मर्ज़ भी तो पुराना था लेकिन ...

दुआ, चंद सिक्के, दो रोटी से खुश थे ...
फकीरों को हासिल खज़ाना था लेकिन ...

मुक़द्दर कि चालों से वाकिफ था हर दम ...
मुक़द्दर को "शाहिक", हराना था लेकिन ...

--शाहिक अहमद
Shahiq Ahmed on Facebook

Wednesday, December 22, 2010

अनमोल शब्द

अनमोल शब्द

1) रिश्तों की असल खूबसूरती एक दूसरे की बात बर्दाश करने में है
२) बे-ऐब इंसान को तलाश मत करो वरना अकेले रह जाओगे
३) जब किसी काम का इरादा करो तो उसका अंजाम सोच लो, अगर अंजाम अच्छा हो तो कर लो, और अगर अंजाम बुरा हो तो उस से रुक जाओ
४) किसी से नाराजगी का वक़्त इतना तवील न रखो के वो तुम्हारे बगैर ही जीना सीख जाए
५) गुनाह में लज़्ज़त होती है, सुकून नहीं
६) बात अलफ़ाज़ की नहीं लहजे की होती है, किसी के बारे में बुरा मत सोचो, हो सकता है वो खुदा की नज़र में तुम से बेहतर हो
७) कोई गुनाह लज़्ज़त के लिए मत करना, क्योंके लज़्ज़त खत्म हो जायेगी और गुनाह बाक़ी रहेगा, और कोई नेखी तकलीफ की वजेह से मत छोडो, क्यों के तकलीफ खत्म हो जायेगी और नेकी बाकी रहेगी.

हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं

हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं

मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं

आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं

हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
मेरी ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं

--श्रद्धा जैन

किसी से प्यार अगर हो तो बेपनाह न हो

मोहब्बतों में अगर कोई रस्म-ओ-राह न हो 
सुकूं तबाह न हो, ज़िन्दगी गुनाह न हो 

कुछ ऐतबार भी लाजिम है दिल्लगी के लिए 
किसी से प्यार अगर हो तो बेपनाह न हो 

इस एहतियात से मैं तेरे साथ चलता हूँ 
तेरी निगाह से आगे मेरी निगाह न हो 

मेरा वजूद है सच्चाइयों का आइना 
ये और बात के मेरा कोई गवाह न हो 

--अज्ञात 

Sunday, December 12, 2010

मुझ से मिल कर उसका उदास होना, मुझे अच्छा नहीं लगता

वो मुझसे दूर रह कर खुश है, तो उसे खुश रहने दो
मुझ से मिल कर उसका उदास होना, मुझे अच्छा नहीं लगता
--अज्ञात

होती है बड़ी ज़ालिम एक तरफ़ा मोहब्बत

होती है बड़ी ज़ालिम एक तरफ़ा मोहब्बत
वो याद तो आते हैं मगर याद नहीं करते ...

--अज्ञात

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं,
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नही

--जिगर मोरादाबादी

कितनी उल्फत है हमें तुझसे

भूल जाना भी क्या ज़रूरी है
याद आना भी क्या ज़रूरी है ?

तू जो कहता है, सच ही कहता है
कसमें खाना भी क्या ज़रूरी है ?

रूठ जाना तुम्हारी आदत है
फिर बहाना बनाना भी क्या ज़रूरी है ?

तेरी महफ़िल में घायल बैठे हैं
मेरा आना भी क्या ज़रूरी है ?

सब ही कहते हैं इश्क है आतिश
आजमाना भी क्या ज़रूरी है ?

कितनी उल्फत है हमें तुझसे
ये बताना भी क्या ज़रूरी है ?

--अज्ञात

Saturday, December 11, 2010

मौत तो मुफ्त में ही बदनाम है

मौत तो मुफ्त में ही बदनाम है,
जान तो कमबख्त जिंदगी लेती है

--अज्ञात 
 From the movie : Jaan

Friday, December 10, 2010

खबर होती अगर मुझको नहीं है तू मुकद्दर में

कहाँ मुमकिन था मैं दिल से तेरी यादें मिटा देता
भला कैसे मैं जीता फिर अगर तुझको भुला देता

तेरी रुसवाई के डर से लबों को सी लिया वरना,
तेरे शहर-ए-मुनाफिक की मैं बुनियादें हिला देता

किया तर्क-ए-वफ़ा उसने तो होगी उसकी मजबूरी,
जिसने बरसों दुआ दी थी, उसे क्या बद्दुआ देता

खबर होती अगर मुझको नहीं है तू मुकद्दर में,
उसी लम्हें में हाथों की लकीरों को मिटा देता

--अज्ञात

उफ़ तक न कहा दिल ने इश्क में हारने के बाद

उफ़ तक न कहा दिल ने इश्क में हारने के बाद
आँखें तो बे-वफ़ा हैं, यूं ही रो दिया करती हैं
--अज्ञात

Wednesday, December 8, 2010

ये तो सोचो सवाल कैसा है

ये तो सोचो सवाल कैसा है
देश क़ा आज हाल कैसा है

जिससे मज़हब निकल नहीं पाते
साजिशों क़ा वो जाल कैसा है

आए दिन हादसे ही होते हैं
सोचता हूँ ये साल कैसा है

आपने आग को हवा दी थी
जल गए तो मलाल कैसा है

जान लेता है बेगुनाहों की
आपका ये कमाल कैसा है

दुश्मनी से `तुषार` क्या हासिल
दोस्ती क़ा ख़याल कैसा है

--नित्यानंद तुषार

Source : http://ntushar.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

Tuesday, December 7, 2010

हर एक से कहते हैं क्या "दाग" बेवफ़ा निकला

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
ना था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे निभायेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा ना दिल में वो बे-दर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था

ना पूछ-पाछ थी किसी की ना आव-भगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किये पढ़ा भी नहीं
सुन जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

इंहीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

हर एक से कहते हैं क्या "दाग" बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

--दाग देहलवी

Source : http://www.urdupoetry.com/daag01.html

अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का

अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
याद आता है हमें हाय! ज़माना दिल का

तुम भी मुँह चूम लो बेसाख़ता प्यार आ जाए
मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का

पूरी मेंहदी भी लगानी नहीं आती अब तक
क्योंकर आया तुझे, ग़ैरों से लगाना दिल का

इन हसीनों का लड़कपन ही रहे, या अल्लाह
होश आता है, तो आता है सताना दिल का

निगाह-ए-यार ने की ख़ाना ख़राबी ऐसी
न ठिकाना है जिगर का, न ठिकाना दिल का

--दाग़ देहलवी

Similar post by Parveen Shakir : http://yogi-collection.blogspot.in/2013/01/blog-post_7.html

आदमी आदमी से मिलता है

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

आज क्या बात है के फूलों का
रन्ग तेरी हँसी से मिलता है

मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है

कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है

--जिगर मोरादाबदी

Source : http://www.urdupoetry.com/jigar37.html