इनकार की सी लज़्ज़त इकरार में कहाँ
बढ़ता है इश्क ग़ालिब उनकी नहीं नहीं से
--मिर्ज़ा ग़ालिब
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Wednesday, December 7, 2011
Wednesday, July 28, 2010
आ जाए किसी दिन तू ऐसा भी नही लगता
आ जाए किसी दिन तू ऐसा भी नही लगता
लेकिन वो तेरा वादा झूठा भी नही लगता
मिलता है सुकूँ दिल को उस यार के कूचे में
हर रोज़ मगर जाना अच्छा भी नही लगता..
देखा है तुझे जब से बेचैन बहुत है दिल
कहने को कोई तुझ से रिश्ता भी नही लगता
क्या फ़ैसला करूँ उस के बारे में अब
वो गैर नही लेकिन अपना भी नही लगता
--मिर्ज़ा ग़ालिब
Saturday, March 6, 2010
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
[तीर-ए-नीमकश=half drawn arrow, ख़लिश=pain ]
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
[शब-ए-गम=गम की रात]
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
[गर्क=drown/sink]
--मिरज़ा ग़ालिब
Source : http://www.urdupoetry.com/ghalib61.html
Monday, December 7, 2009
खूबसूरती भी क्या बुरी चीज़ है
जिसने भी कभी डाली बुरी नज़र ही डाली
--मिरज़ा ग़ालिब
Saturday, December 5, 2009
तेरे हुस्न को परदे की ज़रूरत ही क्या है ग़ालिब
कौन होश में रहता है, तुझे देखने के बाद
--मिरज़ा ग़ालिब
Saturday, June 20, 2009
माना के साकी के पास जाम बहुत है
पर हमें भी दुनिया में काम बहुत है
आरज़ू, अरमान, इश्क़, तमन्ना, वफ़ा, मोहब्बत
चीज़ें तो अच्छी हैं पर दाम बहुत है
ऐसा भी है कोई जो ग़ालिब को ना जाने
शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है
--मिरज़ा ग़ालिब
मुझे ये गज़ल एक दोस्त ने भेजी थी, ग़ालिब के तखल्लुस से लगा कि मिरज़ा ग़ालिब की होनी चाहिये, इस लिये शायर का नाम मिरज़ा ग़ालिब लिख रहा हूँ। अगर ग़लत हो, तो बताईयेगा
Sunday, April 5, 2009
ग़ालिब न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बगैर
--मिरज़ा ग़ालिब
Saturday, April 4, 2009
रुकवा देना मेरा जनाज़ा ग़ालिब जब उनका घर आये
शायद वो झांक ले खिड़की से, और मेरा दिल धड़क जाये
--मिरज़ा ग़ालिब
Sunday, March 29, 2009
ये न थी किसमत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतज़ार होता
--मिरज़ा ग़ालिब
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख से ही न टपका तो फ़िर लहू क्या है
--मिरज़ा ग़ालिब
तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यों करो ग़ालिब
ये क्या कि तुम कहो, और वो कहें याद नहीं
--मिरज़ा ग़ालिब
तुम मुझे कभी दिल कभी आंखो से पुकारो ग़ालिब
ये होंठो का तकल्लुफ़ तो ज़माने के लिये है
--मिरज़ा ग़ालिब
Saturday, March 28, 2009
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर ना जाते अगर ऐतबार होता
--मिरज़ा ग़ालिब