कमरे को नयी आब-ओ-हवा क्यों नहीं देते
इन बूढ़े कलंडरों को हटा क्यों नहीं देते
इक शक्स गुलेलों को यहाँ बेच रहा है
ये राज़ परिंदों को बता क्यों नहीं देते
अलमारी में रख आओ गये वक़्त की एलबम
जो बीत गया उसको भुला क्यों नहीं देते
ए तेज़ हवा ! तू भला समझेगी कहाँ तक
हम तुझको चरागों का पता क्यों नहीं देते
पोशाक मेरी आपसे शफाक है ज़्यादा
ये मेरी खता है तो सज़ा क्यों नहीं देते
हम खानाबदोशों के नहीं होते ठिकाने
मत पूछ कि हम घर का पता क्यों नहीं देते
--ज्ञान प्रकाश विवेक
बहुत बढिया गज़ल प्रेषित की है।बधाई।
ReplyDeleteहम खानाबदोशों के नहीं होते ठिकाने
मत पूछ कि हम घर का पता क्यों नहीं देते
yaar that is very nice and like ,i think ur language is solid u r very good please keep up for writing
ReplyDelete@karmovala
ReplyDeleteThat's not written by me.
I have mentioned the name of the author in the end.
Infact no poem/sher on this blog is written by me. I have mentioned the author's name where ever I know, in the end of every sher/gazal.
अलमारी में रख आओ गये वक़्त की एलबम
ReplyDeleteKahan kahan se khoj late hain aapyeh sab...
Great...
नीरज,
ReplyDeleteबस जनाब, यूँ समझ लो, जहां चाह वहां राह !!!