बेसबब यूं ही सर-ए-शाम निकल आते हैं
हम बुलाये तो उन्हें काम निकल आते हैं
--अज्ञात
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बेसबब यूं ही सर-ए-शाम निकल आते हैं
हम बुलाये तो उन्हें काम निकल आते हैं
--अज्ञात
अधूरा, अनसुना ही रह गया प्यास का किस्सा
कभी तुमने नहीं सुना, कभी मैंने नहीं कहा
--अज्ञात
मुसीबतों का पुलिंदा है इश्क,
मुसीबतों से ही जिंदा है इश्क..
ज़माने वालो हवाएं थामो,
हवा में उड़ता परिंदा है इश्क..
न जीने देता, न मरने देता,
अजीब वहशी दरिंदा है इश्क...
.....रजनीश सचान
उसके दर पर जो गया हूँ,
बावला सा हो गया हूँ..
तू न समझेगी मुझे अब,
मै तुझे मिल जो गया हूँ...
.....रजनीश सचान
उससे जीतूँ भी तो हारा जाए ,
चैन जाए तो हमारा जाए ...
मैं भी तनहा हूँ खुदा भी तनहा,
वक़्त कुछ साथ गुज़ारा जाए ...
उसकी आवाज़ है आयत का सुकूँ,
उसकी हर बात पे वारा जाए ...
चाहे जितनी भी हसीं हो वो गली,
उसपे लानत जो दोबारा जाए ...
दिल जला है तो जिगर फूंक अपना,
दर्द को दर्द से मारा जाए ...
रूह घुट-घुट के न मर जाए कहीं,
अब तो ये जिस्म उतारा जाए ....
.....रजनीश सचान
रिश्ते अटूट भी देखना टूट जायेंगे
रफ्ता रफ्ता सारे ग़म छूट जायेंगे
चलो देखते हैं आज बाज़ी पलट कर
जब वो आयेंगे तो हम रूठ जायेंगे
उठते तो है प्यार के पर उम्र कम है
बुलबुले ये ... हवा में फूट जायेंगे
नहीं होते इनके पांव तो क्या हुआ
देखना बहुत दूरतक ये झूठ जायेंगे
आएगा गुबार बाहर अश’आर बनकर
नीचे हलक़ के जब कुछ घूँट जायेंगे
तुम मुतमईन चुराकर दिल ‘अमित’ का
पर महफिलें तेरी ये हम लूट जायेंगे
--अमित हर्ष
हादसे थे .…. कि हद से पार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
कुसूर इतना … कि सच कह दिया
जो कुछ था पता … सब कह दिया
गलती बस इतनी ... कि गलत नहीं किया
किसी पर भी ... हमने शक नहीं किया
अंजाम हुआ कि शक के दायरे में आ गए
अनकहे बयान हमारे .. चर्चे में आ गए
‘तर्क-ओ-दलील’ सारे तार तार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
पीड़ा पीड़ित की जाना ही नहीं कोई
टूटा है पहाड़ हमपे .. माना ही नहीं कोई
हँसती खिलखिलाती मासूम बेटी गंवा दी
हमने सारे जीवन की पूँजी गंवा दी
इल्ज़ाम ये है कि कुछ छुपा रहे है हम
क्या बचा है अब .. जो बचा रहे है हम
पल पल जिंदगी के .... उधार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
उम्मीद थी कि दुनिया ढाढस बंधाएगी
उबरने के इस गम के तरीके सुझायेगी
पर लोगो ने तो क्या क्या दास्ताँ गढ़ ली
जो लिखी न जाए, .. ऐसी कहानी पढ़ ली
मीडिया ने हमारे नाम की सुर्खिया चढ़ा ली
चैनलों ने भी लगे हाथ .... टीआरपी बढ़ा ली
अंदाज-ओ-अटकलों से रंगे अखबार हो गए
और हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
हँसती खेलती सी एक दुनिया थी हमारी
हम दो ..... और एक गुड़िया थी हमारी
दु:खों को खुशियों की खबर लग गई
जाने किस की नज़र लग गई
कुसूर ये जरूर कि हम जान नहीं पाए
शैतान हमारे बीच था, पहचान नहीं पाए
बगल कमरे में छटपटाती रही होगी
बचाने को लिए हमें बुलाती रही होगी
जाने किस नींद की आगोश में थे हम
खुली आँख ... फिर न होश में थे हम
ये ‘गुनाह’ हमारा ‘काबिल-ए-रहम’ नहीं है
पर मुनासिब नहीं कहना कि ... हमें गम नहीं है
खुद नज़र में अपनी .. शर्मसार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
पुलिस, मीडिया, अदालत से कोई गिला नहीं है
वो क्या कर रहे है ...... खुद उन्हें पता नहीं है
फजीहत से बचने को सबने .. फ़साने गढ़ दिए
इल्ज़ाम खुद की नाकामी के .. सर हमारे मढ़ दिए
‘अच्छा’ किसी को ... किसी को ‘बुरा’ बनाया गया
न मिला कोई तो हमें बलि का बकरा बनाया गया
असलीयत बेरहमी से मसल दी जाने लगी
फिर .. शक को सबूत की शकल दी जाने लगी
‘तथ्य’, .. ‘सत्य’ सारे निराधार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
सेक्स, वासना, भोग से क्यों उबर नहीं पाते
सीधी सरल बात क्यों हम कर नहीं पाते
बात अभी की नहीं ... हम अरसे से देखते है
हर घटना क्यों ... इसी चश्मे से देखते है
ईर्ष्या, हवस, बदले से भी ये काम हो सकते है
क़त्ल के लिए पहलू .. तमाम हो सकते है
जो मर गया उसे भी बख्शा नहीं गया
नज़र से अबतलक वो नक्शा नहीं गया
उम्र, रिश्ते, जज़्बात का लिहाज़ भी नहीं किया
कमाल ये कि .. किसी ने एतराज़ भी नहीं किया
कितने विकृत विषमय विचार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
इन घिनौने इल्जामों को झुठलाना ही होगा
सच मामले का ... सामने लाना ही होगा
वरना संतुलन समाज का बिगड़ जाएगा
बच्चा घर में .. माँ बाप से डर जाएगा
कैसे कोई बेटी .... माँ के आँचल में सिमटेगी
पिता से कैसे .. खिलौनों की खातिर मचलेगी
गर .. साबित हुआ इल्ज़ाम तो ये समाज सहम जाएगा
रिश्तों का टूट ... हर तिलस्म जाएगा
बेमाने सारे रिश्ते नाते .. परिवार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
~ ~ ~ { ...... “तलवार दम्पति” के दर्द को समर्पित ....... } ~ ~ ~
--अमित हर्ष
बड़ी गुस्ताख है तेरी यादें इन्हें तमीज सिखा दो
दस्तक भी नहीं देती और दिल में उतर आती हैं
--अज्ञात
तुम्हारे रास्तो से दूर रहना ...
कहाँ तक ठीक है मजबूर रहना ..
सभी के बस की बात थोड़ी है ..
नशे में इस कदर भी चूर रहना ..
न जाने किस कदम पे छोड़ेगी ..
हमारे साथ रहके दूर रहना ...
तुम्हारी याद ही तो जानती है ..
मेरे कमरे बनके नूर रहना ...
सच तो ये है मेरी तमन्ना थी ..
तुम्हारी मांग का सिंदूर रहना ..
जो मेरे पास आना चाहती है ..
वो ही कहती है मुझसे दूर रहना ...
तो क्या ठीक है मेरे दिल में ...
तुम्हारा बनके यूं नासूर रहना ..
मुझसे पूछो के इतने पत्थरो में..
कितना मुश्किल है कोहिनूर रहना ..
उसकी आदत में आ गया है अब ...
हमारे नाम से मशहूर रहना ...
मैंने तो सिर्फ इतना जाना है ...
बड़ा मुश्किल है तुझसे दूर रहना ..
कभी इसा कभी सुखरात बनना ..
कभी सरमद कभी मंसूर रहना ..
ये शायरी नहीं तज्जली है ..
ज़हन ऐसे ही कोहेतूर रहना ..
'सतलज' हम तुझे पहचानते हैं ..
तुझे हक है युही मगरूर रहना .
--सतलज राहत
हाँ किरदार कहानी के सच्चे नही है
पढ़ने वाले भी लेकिन बच्चे नही है
जिसके दामन पे लगे वही जानता है
दाग कैसे भी लगे, अच्छे नही है
--अमोल सरोज
डरता हूँ कहने से के मोहब्बत है तुमसे
मेरी ज़िन्दगी बदल देगा, तेरा इकरार भी, इनकार भी
--अज्ञात
ज्यादा मिठाई अच्छी नहीं लगती
झूठी वाहवाही अच्छी नहीं लगती
सच, हक में .. फायदेमंद भी, पर
हमें कड़वी दवाई अच्छी नहीं लगती
तुझे ही हो मुबारक़ बुज़ुर्गों की हवेली
ये दीवार मेरे भाई अच्छी नहीं लगती
मोहब्बत में तकरार लाज़मी है मगर
पर अब ये लड़ाई अच्छी नहीं लगती
लुत्फ़ आता है हमें भी यूँ तो
पर हरदम बुराई अच्छी नहीं लगती
किसे है गुरेज़ ठहाकों कहकहों से
पर जगहंसाई अच्छी नहीं लगती
कुबूल है तेरी सारी बेवफ़ाइयां, ऐ दोस्त
तेरे मुंह से सफाई अच्छी नहीं लगती
चुरा ली नींदे नरम पलंग ने, पर क्या करें
घर में अब चारपाई अच्छी नहीं लगती
नज़र न आये मेरे अपने जहाँ से
हमें वो उंचाई अच्छी नहीं लगती
शराफत को ज़माना कमजोरी समझे
इतनी अच्छाई अच्छी नहीं लगती
कभी तो कीजिये सीधीसादी शायरी
हरदम ये गहराई अच्छी नहीं लगती
दुश्मनों को हैं कुबूल तारीफ़ यूं तो
पर दोस्तों को बड़ाई अच्छी नहीं लगती
तेरी बज़्म नवाज़ती है ‘खुलूस-ओ-दाद’ से
किसको ये कमाई अच्छी नहीं लगती
चल दिए पढ़कर, न लाइक न कमेंट
आपकी ये कोताही अच्छी नहीं लगती
फ़क़त इसलिए उसकी आदतें बुरी है
‘अमित’ को पारसाई अच्छी नहीं लगती
* पारसाई paarsaai = संयम, सदाचार Austerity, Morality
--अमित हर्ष
मैंने गम-ए-हयात में तुझको भुला दिया
हुस्न-ए-वफ़ा शायर बहुत बेवफा हूँ मैं
इश्क एक सच था तुझसे जो बोला नहीं कभी
इश्क अब वो झूठ है, जो बहुत बोलता हूँ मैं
--जौन इलिया
खामोशी को पकड़ रहा है तू
सबकी आँखों में गढ़ रहा है तू
उसकी बातों में गोल चक्कर है
किसके चक्कर में पड़ रहा है तू
क्या हुआ क्यूं झुकाए है नज़रें
बात क्या है बिगड़ रहा है तू
ठीक है हो गया जो होना था
क्या सही है जो लड़ रहा है तू
--अर्घ्वान रब्भी
हद तक सताना भी खूब आता है
उनको मनाना भी खूब आता है
गुस्से मे होते हैं जब कभी हम
उनको मुस्कुराना भी खूब आता है
प्यार तो करती हैं हमसे बेपनाह
ये उनको छुपाना भी खूब आता है
लड़ती है अक्सर हमसे हमारे खातिर
प्यार उनको जताना भी खूब आता है
थक के सो जाने को जी करे तब वो
उनकी यादों का सिरहाना भी खूब आता है
किस तरह बयाँ करूँ अपना हाल-ए-दिल दीपक
--दीपक सिन्हा
सबको ही प्यार की, बस प्यार की ज़रुरत है
अब तो हर एक को दो चार की ज़रुरत है
लगा के फोन मुझे...मेरे दुश्मनों ने कहा
हमारे कुनबे को सरदार की ज़रुरत है
जब मेरी बाहों में बसी है तुम्हारी दुनिया
किस लिए फिर तुम्हें संसार की ज़रुरत है
अब तो सब देने को क़दमों में पड़ी है दुनिया
अब तो बस जुर्रत-ए-इनकार की ज़रुरत है
बस इसी वास्ते दुनिया में जंग जारी है
हमको सर की नहीं दस्तार की ज़रुरत है
ये दिल मेरा है, इसे तुम संभाल के रख लो
काम आएगा तुम्हे प्यार की ज़रुरत है
बुला रही ग़ज़ल आ भी जा मेरे सतलज
तेरे जैसे किसी अवतार की ज़रुरत है
--सतलज राहत
पूछा न जिंदगी में किसी ने भी दिल का दुःख
शहर भर में ज़िक्र मेरी ख़ुदकुशी का है ।
--अज्ञात
नज़र नज़र का फर्क होता है हुस्न का नहीं
महबूब जिसका भी हो बेमिसाल होता है
--अज्ञात
दुनिया में तो कोई और भी होगा तेरे जैसा
पर हम, तुझे चाहते हैं, तेरे जैसों को नहीं
--अज्ञात
दोस्तों आज मुझे आप सबको बताते हुए अति प्रसन्नता हो रही है
कि मेरी खुद की कविताओं को एक किताब का रूप मिल गया है
इस में मेरे दोस्त अनंत अगरवाल ने मेरी बहुत मदद की |
और आप को पढ़ना चाहें तो खरीद सकते हैं
http://pothi.com/pothi/book/ebook-yogesh-gandhi-ehsaas
तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? जो तुमने तोड़ डाला है
ये टुकड़े मैं नहीं लूँगा...मुझे दिल बना कर दो
--अज्ञात
ये कोई ग़म था जो आँखों से बह गया
या तुम चल दिए फिर मुझसे दूर
--शिल्पा अग्रवाल
मेरी मंज़िल, मेरी हद
बस तुमसे तुम तक
फ़क्र ये है के तुम मेरे हो
फ़िक्र ये के कब तक
--अज्ञात
कोई रिश्ता जो न होता तो वो ख़फा क्यों होते
यह बेरुख़ी उनकी मोहब्बत ही का पता देती है
--अज्ञात
लोगों ने रोज़ कुछ नया माँगा खुदा से
एक हम ही तेरे ख़याल से आगे नहीं गए
--अज्ञात
लोगों को हसाने के वास्ते
ज़िन्दगी बिता दी उसने
कितना अजीब था वो शख्स,
खुद कभी मुस्कुराता न था
पता नहीं किसके लिए
गज़लें लिखता रहता था
पर अपनी गज़लें
किसी को सुनाता न था
--अज्ञात
कुछ तो मेरी आँखों को पढने का हुनर सीख
हर बात मेरे यार बताने की नही होती
--अज्ञात
याद आते हैं तो कुछ भी नहीं करने देते
अच्छे लोगों की यही बात बहुत बुरी लगती है
--अज्ञात
आंसू उठा लेते हैं मेरे ग़मों का बोझ
ये वो दोस्त हैं जो एहसान जताया नहीं करते
--अज्ञात
याद करने की हमने हद कर दी मगर
भूल जाने में तुम भी कमाल रखते हो
--अज्ञात
कोई पूछ रहा है मुझसे मेरी ज़िन्दगी की कीमत
मुझे याद आ रहा है तेरा वो हल्का सा मुस्कुराना
--अज्ञात
रूठ जाने की अदा हमको भी आती है
काश कोई होता हमको भी मनाने वाला
--अज्ञात
उदास ज़िन्दगी, उदास वक्त, उदास मौसम...
कितनी चीज़ों पे इल्ज़ाम लग जाता है तेरे बात न करने से
--अज्ञात
तेरे दोस्तों में तेरा भ्रम रहे,
यही सोच कर मैं चुप रहा
जो निगाह में था वो छुपा लिया
जो दिल में था वो कहा नहीं
--अज्ञात
नया एक रब्त क्यों करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यों करें हम
खामोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम
ये काफी है के हम दुश्मन नहीं हैं
वफादारी का दावा क्यों करें हम
वफ़ा, इखलास, कुर्बानी, मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यों करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यों करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यों करें हम
नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी
तो फिर दुनिया की परवाह क्यों करें हम
--अज्ञात
जो हो एक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता
हर एक कश्ती का अपना तजुर्बा होता है दुनिया में
सफर में रोज़ ही मझधार हो ऐसा नहीं होता
कहानी में तो किरदारों को जो चाहिए बना दीजिए
हकीक़त में कहानीकार हो ऐसा नहीं होता
कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो
हर एक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता
सिखा देती हैं चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रास्ता सदा दुश्वार हो ऐसा नहीं होता
--अज्ञात
अपनी तनहाई तेरे नाम पे आबाद करे
कौन होगा जो तुझे मेरी तरह याद करे
--अज्ञात
जो कभी अपना नहीँ था उसे खोकर रोया
उसकी खातिर मै गैर था जिसका होकर रोया
इस उदासी का सबब मै किसी से क्या कह दूँ
कभी दिल ही मे, कभी पलके भिगोकर रोया
प्रमोद तिवारी
गमों में डूबे तो फिर जगमगा के निकले हैं ...
यहाँ डूबे थे ... बड़ी दूर जा के निकले हैं ....
तेरी बाहों में बड़े प्यार से आये थे मगर ..
तेरे पंजो से बहुत छटपटा के निकले हैं ...
तूने भी दिल को दुखने की इन्तहा कर दी...
हम भी महफ़िल से मगर मुस्कुरा के निकले हैं ..
कई लोगो से मेरी नौकरी की बात हुई ...
बहुत से काम तो हाथो में आ के निकले हैं ...
मेरे ही ज़ब्त ने बेचैन किया है तुझको ..
ये तेरे आंसू मुझे आजमा के निकले हैं ...
बड़े तैराक हैं ये मैंने खुद भी देखा है ...
यहाँ कूदे थे .. बहुत दूर जा के निकले हैं ..
धड़कने रुक गयी , दम भी निकल गया मेरा..
सभी अरमान तेरे पास आ के निकले हैं ..
हमने हर नौकरी बर्बाद होके छोड़ी है ...
सबको लगता है के पैसा कमा के निकले हैं ..
ऐसे वैसो को भी दिल में बसा लिया ''सतलज'
बहुत से लोग तो बातें बना के निकले हैं ...
वो अजब शक्स था ऐ ज़िन्दगी...
जिसे समझ के भी न समझ सके...
मुझे चाहता भी गज़ब था...
मुझे छोड़ के भी चला गया...
--अज्ञात
नया दर्द एक दिल में जगा कर चला गया
कल फिर वो मेरे शहर में आ कर चला गया
जिसे ढूँढ़ते रहे हम लोगों की भीड़ में
मुझसे वो अपने आप को छुपा कर चला गया
मैं उसकी खामोशी का सबब पूछता रहा
वो किस्से इधर उधर के सुना कर चला गया
ये सोचता हूँ के मैं कैसे भुलाऊंगा अब उसे
उस शक्स को जो मुझको पल भर में भुला कर चला गया
बहुत बुरा है मगर फिर भी तुम से अच्छा है
ये दिल का दर्द जो हर पल साथ रहता है
--अज्ञात
मेरे दिल पे नक्श तेरी यादों का
ऐसे में कैसे किसी और को सोचूँ
--अज्ञात
पास ‘दोस्ती की दौलत’ हो तो डर नहीं लगता
ये वो कमाई है .... जिसपर ‘कर’ नहीं लगता
छुपाया था यूं तो बड़े जतन से .... ज़माने से
पर उस ‘राज़’ से कोई .. बेखबर नहीं लगता
ये कवायद .. ‘एहतियात-ओ-सब्र’ मांगती है
इश्क में कोई .. ‘जोर-ओ-ज़बर’ नहीं लगता
सारे पुर्जे जिस्म के ....... जवाब दे रहे है
कभी दिल .. तो कभी जिगर नहीं लगता
वो कहते है ‘अमित’ का कोई .. सानी नहीं है
ऐसा भी नहीं कोई उससे बेहतर नहीं लगता
समझौता उसने भी कर लिया हालात से शायद
अब 'अमित' में भी ...... वो ‘तेवर’ नहीं लगता
--अमित हर्ष
कैसे कोई छुपाये आंसू
आखिर आँख में आये आंसू
तुझको ये मालूम नहीं
कितने रात बहाए आंसू
दर्द की लज़्ज़त और बढ़ी
जब आंसू में मिलाए आंसू
--अज्ञात
नियम भी हैं, कायदे भी हैं
बने बनाये इश्क के वायदे भी हैं
नुकसान तुमने उठाये हैं, पर मानस
सुनो, इश्क के अपने फायदे भी हैं
मानस भारद्वाज
तलुवे तले जीभ उतारकर रख दी
बोतल शराब की निकालकर रख दी
मुहब्बत का पन्ना पन्ना याद किया
किताब आंसू से जलाकर रख दी
तुम्हे तो ये भी नहीं पता है , सोना
हमने ज़िन्दगी कहाँ गुजारकर रख दी
ज़हर अभी उतरा भी नहीं था
तेरी याद फिर सजाकर रख दी
तूने भी हिस्से में कुछ नहीं छोड़ा
हमने भी विरासत गँवाकर रख दी
मानस भारद्वाज
ज़मीन से पहले, खुले आसमान से पहले
न जाने क्या था यहाँ इस जहाँ से पहले
हमें भी, रोज ही मरना है, मौत आने तक
हमें भी ज़िंदगी देनी है, जान से पहले
ख़याल आते ही मंजिल से अपनी दूरी का
मैं थक सा जाता हूँ अक्सर थकान से पहले
जो मेरे दिल में है, उसके भी दिल में है, लेकिन
वो चाहता है, कहूँ मैं.... ज़बान से पहले
हमें पता है, हमारा जो हश्र होना है
नतीजा जानते हैं, इम्तिहान से पहले
--राजेश रेड्डी
अब न कोई मुगालता रखना
अपने कद का पता सदा रखना
घर सलामत रखे तुम्हारा जो
दोस्तों से वो फासला रखना
वक्त के साथ मत बदल जाना
प्यार के पेड़ को हरा रखना
दूर है जो करीब होगा वो
अपने होंटों पे बस दुआ रखना
मंजिलों पे अगर नज़र है तो
अपनी नज़रों में रास्ता रखना
मिलना जुलना तुषार मुश्किल हो
फोन करने का सिलसिला रखना
--नित्यानंद तुषार
भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
हम आंसुओं की तरह मुस्कुराने वाले थे
हमीं ने कर दिया एलान-ए-गुमराही वरना
हमारे पीछे बहुत लोग आने वाले थे
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था, कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊंचे घराने वाले थे
उन्हें करीब न होने दिया कभी मैंने
जो दोस्ती में हदें भूल जाने वाले थे
मैं जिनको जान के पहचान भी नहीं सकता
कुछ ऐसे लोग, मेरा घर जलाने वाले थे
हमारा अलमिया ये था, की हमसफ़र भी हमें
वही मिले, जो बहुत याद आने वाले थे
[अलमिया=विडम्बना]
"वसीम" कैसी ताल्लुक की राह थी जिसमें
वही मिले जो बहुत दिल दुखाने वाले थे
--वसीम बरेलवी
हुआ है तुझसे बिछडने के बाद अब मालूम
के तू नहीं था, तेरे साथ एक दुनिया थी..
--अज्ञात
चढ़दे सूरज ढल्दे वेखे
बुझे दीवे बल्दे वेखे
हीरे दा कोई मुल्ल न तारे
खोटे सिक्के चलदे वेखे
जिन्हां दा न जग ते कोई
ओ वी पुत्तर पलदे वेखे
ओहदी रहमत दे नाल बंदे
पाणी उत्ते चलदे वेखे
लोकी कहंदे दाल नी गल्दी
मैं ता पत्थर गल्दे वेखे
जिन्हां क़दर न कीती यार दी बुल्ल्या
हथ खाली ओ मल्दे वेखे
--बुल्ले शाह
लोगों ने कुछ ऐसी बात बढ़ाई थी
तर्क-ए-मोहब्बत में भी अब रुसवाई थी
नाम हुआ बदनाम मोहल्ले वालो का
घर को हमने खुद ही आग लगाई थी
जिसके दिल में शौक़ था तुमने पर मरने का
उसने अपनी सूली आप उठाई थी
मंज़र घर के बाहर भी सूने थे
घर के अंदर भी दोहरी तन्हाई थी
"कैस" दुआ तो मांगी थी सहराओं ने
दरिया पर बारिश किसने बरसाई थी
--सईद कैस
चलो अब फ़ैसला कर लें
के इस रास्ते पे कितनी दूर जाना है?
मुझे तुमसे बिछडना है?
तुम्हें मुझ को भूलना है?
बहुत दिन तक
कभी साहिल की भीगी रेत पेर यूँ ही
तुम्हारा नाम लिखा है
कभी खुश्बू पे अश्कों से
कोई पैगाम लिखा है
कभी तन्हाई की वहशत में
दीवारों से बातें कीं
कभी छत पर टहल कर
चाँद से, तारों से बातें कीं
मगर ये इश्क़ की दीवानगी ठहरी
कोई हासिल नही जिस से
नदी के दो किनारों की तरह
हमराह चलने से
अलग ताक़ों में रखे
दो चिरागों की तरह एक साथ जलने से
भला किया फ़ायदा होगा
ये एक ऐसी मोहब्बत है
क जिस में क़ुरबत ओ फुरक़त का
या सोद-ओ-ज़ियाँ का
कोई भी लम्हा नहीं आता
सो इस बे-रब्त क़िस्से का
कोई अंजाम हो जाए
चलो अब फ़ैसला कर लें
[Humaira Rahat]
दिल में कैद है, अब तुझको रिहा क्या करना
जिस्म से रूह को दानिस्ता जुदा क्या करना
[दानिस्ता=जान बूझ कर]
मैने जब याद किया याद वो आया मुझको
अब ज़्यादा उसे मजबूर-ए-वफा क्या करना
कुछ मिले या न मिले कूचा-ए-जानां है बहुत
हम फकीरों को कहीं और सदा क्या करना
मुझको जब तर्क-ए-मोहब्बत का कुछ एहसास न हो
तुझसे फिर तर्क-ए-मोहब्बत का गिला क्या करना
[तर्क-ए-मोहब्बत=breakup of relationship]
याद करने पे जो मुझसे नाराज़ है "खवार"
भूल कर उसको भला और खफा क्या करना
रहमन खवार
रस्म-ए-उल्फत सिखा गया कोई
दिल की दुनिया पे छा गया कोई
ता-क़यामत किसी तरह न बुझे
आग ऐसी लगा गया कोई
दिल की दुनिया उजरी सी क्यों है
क्या यहाँ से चला गया कोई
वक्त-ए-रुखसत गले लगा कर "दाग"
हँसते हँसते रुला गया कोई
--दाग देहलवी
मुझ पर सितम ढा गये मेरी ग़ज़ल के शेर,
पढ़ पढ़ के खो रहे हैं वो किसी और के ख्याल में
--मरीज़
कभी कभी ये सब अपना ख़याल लगता है
वो मेरा है या नहीं, उलझा सवाल लगता है
मैं वफ़ा कर के भी बदनामियों में हूँ
वो बेवफा हो कर भी बेमिसाल लगता है
--अज्ञात
कोई गज़ल सुना कर क्या करना
यूँ बात बढ़ा कर क्या करना
तुम मेरे थे, तुम मेरे हो
दुनिया को बता कर क्या करना
दिल का रिश्ता निभाओ तुम चाहत से
कोई रस्म निभा कर क्या करना
तुम खफ़ा भी अच्छे लगते हो
तुम्हें मना कर क्या करना
तेरे दर पे आकर बैठे हैं
अब घर भी जाकर क्या करना
दिन याद से अच्छा गुज़रेगा
फिर तुम्हें भुला कर क्या करना
--अज्ञात
मेरे लफ्ज़ फ़ीके पड़ गए, तेरी एक अदा के सामने
मैं तुझको खुदा कह गया , अपने खुदा के सामने ..
तेरी लब पे ये हँसी सनम , हर घड़ी हर लम्हा रहे
पर मुस्कुराना ठीक नहीं, किसी ग़मज़दा के सामने
--अंकित राज
उसने अंदाज़-ए-करम, उन पे वो आना दिल का
हाय वो वक़्त, वो बातें, वो ज़माना दिल का
न सुना उसने तवज्जो से फ़साना दिल का
उम्र गुजरी पर दर्द न जाना दिल का
दिल लगी, दिल की लगी बन के मिटा देती है
रोग दुश्मन को भी या रब न लगाना दिल का
वो भी अपने न हुए, दिल भी गया हाथों से
ऐसे आने से तो बेहतर है, न आना दिल का
उनकी महफ़िल में परवीन उनके तबस्सुम की अदा
हम देखते रह गए हाथ से जाना दिल का
--परवीन शकीर
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इश्क ने यूं कर दिया बेगाना मुझे
अपना साया भी बड़ी मुश्किल से पहचाना मुझे
आपकी ये बेरुखी किस काम की रह जायेगी
आ गया जिस रोज अपने दिल को समझाना मुझे
--अज्ञात
कभी जिद में तेरे हो गए
कभी दिल ने तुझे गँवा दिया
इसी कशमकश में रहे सदा
तूने याद रखा या भुला दिया
कभी बेबसी में हंस दिए
कभी हंसी ने हम को रुला दिया
कभी फूल से रही दोस्ती
कभी हाथ काँटों से मिला दिया
कभी एक को अपना न कर सके
कभी खुद को सब का बना दिया
यूं ही दिन गुज़र गए प्यार के
कभी इक ख़्वाब खुद को बना दिया
जो ख्वाब उभरे इन आँखों में
उन्हें आँख में ही सुला दिया
--अज्ञात
कमबख्त मानता ही नहीं दिल उसे भूलने को
मैं हाथ जोड़ता हूँ तो ये पांव पड़ जाता है
--अज्ञात
जिंदा रहे तो क्या, मर जाएँ हम तो क्या
दुनिया में खामोशी से गुज़र जाएँ हम तो क्या
हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने
एक ख़्वाब है जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या
अब कौन मुन्तजिर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गयी है, लौट के घर जाएँ हम तो क्या
दिल की खलिश तो साथ रहेगी उम्र भर
दरिया-ए-गम के पार उतर जाएँ हम तो क्या
--अज्ञात
महज़ ये फर्क रह गया मोहब्बतों के दौर में
मैं उसका हो गया मगर, वो मेरा हो सका नहीं
--अज्ञात
ये न समझो के ढल रही है शाम
अपने तेवर बदल रही है शाम
तुम नहीं आये और उस दिन से
मेरे सीने में जल रही है शाम
फैलती जा रही तारीकी
एक दुःख से निकल रही है शाम
ज़र्द सूरज छुपा रहा है बदन
लम्हा लम्हा पिघल रही है शाम
ओढ़ती जा रही है खामोशी
ऐसा लगता है ढल रही है शाम
उसके हमराह चल रहा है दिन
मेरे हमराह चल रही है शाम
--अज्ञात
रौशनी देते गुमानो की तरह होता है
हुस्न भी आइना खानों की तरह होता है
हिजर वो मौसम-ए-वीरानी-ए-दिल है जिस्म में
आदमी उजड़े मकानों की तरह होता है
मात हो सकती है चालों में किसी भी लम्हे
इश्क शतरंज के खानों की तरह होता है
वो जो आता है तेरी याद में रुखसार तलक
अश्क तस्बीह के दानों की तरह होता है
तुझ को हाथों से गंवाया तो ये मालूम हुआ
प्यार भी झूठे फसानों कीई तरह होता है
बाज़ औकात मोहब्बत के दिनों में
एक लम्हा भी ज़मानों की तरह होता है
--अज्ञात
मैं भी तुम्हारी याद को दिल से भुला तो दूँ,
पर क्या करूँ के दिल की इजाज़त नहीं मुझे
--अज्ञात
ये दिल भुलाता नहीं है मोहब्बतें उसकी
पड़ी हुई थीं मुझे कितनी आदतें उसकी
ये मेरा सारा सफर उसकी खुश्बू में कटा
मुझे तो राह दिखाती थीं चाहतें उसकी
--अज्ञात