हादसे थे .…. कि हद से पार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
कुसूर इतना … कि सच कह दिया
जो कुछ था पता … सब कह दिया
गलती बस इतनी ... कि गलत नहीं किया
किसी पर भी ... हमने शक नहीं किया
अंजाम हुआ कि शक के दायरे में आ गए
अनकहे बयान हमारे .. चर्चे में आ गए
‘तर्क-ओ-दलील’ सारे तार तार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
पीड़ा पीड़ित की जाना ही नहीं कोई
टूटा है पहाड़ हमपे .. माना ही नहीं कोई
हँसती खिलखिलाती मासूम बेटी गंवा दी
हमने सारे जीवन की पूँजी गंवा दी
इल्ज़ाम ये है कि कुछ छुपा रहे है हम
क्या बचा है अब .. जो बचा रहे है हम
पल पल जिंदगी के .... उधार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
उम्मीद थी कि दुनिया ढाढस बंधाएगी
उबरने के इस गम के तरीके सुझायेगी
पर लोगो ने तो क्या क्या दास्ताँ गढ़ ली
जो लिखी न जाए, .. ऐसी कहानी पढ़ ली
मीडिया ने हमारे नाम की सुर्खिया चढ़ा ली
चैनलों ने भी लगे हाथ .... टीआरपी बढ़ा ली
अंदाज-ओ-अटकलों से रंगे अखबार हो गए
और हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
हँसती खेलती सी एक दुनिया थी हमारी
हम दो ..... और एक गुड़िया थी हमारी
दु:खों को खुशियों की खबर लग गई
जाने किस की नज़र लग गई
कुसूर ये जरूर कि हम जान नहीं पाए
शैतान हमारे बीच था, पहचान नहीं पाए
बगल कमरे में छटपटाती रही होगी
बचाने को लिए हमें बुलाती रही होगी
जाने किस नींद की आगोश में थे हम
खुली आँख ... फिर न होश में थे हम
ये ‘गुनाह’ हमारा ‘काबिल-ए-रहम’ नहीं है
पर मुनासिब नहीं कहना कि ... हमें गम नहीं है
खुद नज़र में अपनी .. शर्मसार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
पुलिस, मीडिया, अदालत से कोई गिला नहीं है
वो क्या कर रहे है ...... खुद उन्हें पता नहीं है
फजीहत से बचने को सबने .. फ़साने गढ़ दिए
इल्ज़ाम खुद की नाकामी के .. सर हमारे मढ़ दिए
‘अच्छा’ किसी को ... किसी को ‘बुरा’ बनाया गया
न मिला कोई तो हमें बलि का बकरा बनाया गया
असलीयत बेरहमी से मसल दी जाने लगी
फिर .. शक को सबूत की शकल दी जाने लगी
‘तथ्य’, .. ‘सत्य’ सारे निराधार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
सेक्स, वासना, भोग से क्यों उबर नहीं पाते
सीधी सरल बात क्यों हम कर नहीं पाते
बात अभी की नहीं ... हम अरसे से देखते है
हर घटना क्यों ... इसी चश्मे से देखते है
ईर्ष्या, हवस, बदले से भी ये काम हो सकते है
क़त्ल के लिए पहलू .. तमाम हो सकते है
जो मर गया उसे भी बख्शा नहीं गया
नज़र से अबतलक वो नक्शा नहीं गया
उम्र, रिश्ते, जज़्बात का लिहाज़ भी नहीं किया
कमाल ये कि .. किसी ने एतराज़ भी नहीं किया
कितने विकृत विषमय विचार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
इन घिनौने इल्जामों को झुठलाना ही होगा
सच मामले का ... सामने लाना ही होगा
वरना संतुलन समाज का बिगड़ जाएगा
बच्चा घर में .. माँ बाप से डर जाएगा
कैसे कोई बेटी .... माँ के आँचल में सिमटेगी
पिता से कैसे .. खिलौनों की खातिर मचलेगी
गर .. साबित हुआ इल्ज़ाम तो ये समाज सहम जाएगा
रिश्तों का टूट ... हर तिलस्म जाएगा
बेमाने सारे रिश्ते नाते .. परिवार हो गए
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
~ ~ ~ { ...... “तलवार दम्पति” के दर्द को समर्पित ....... } ~ ~ ~
--अमित हर्ष
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Tuesday, November 26, 2013
हम अपने ही क़त्ल के गुनाहगार हो गए
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