Sunday, October 13, 2013

झूठी वाहवाही अच्छी नहीं लगती

ज्यादा मिठाई अच्छी नहीं लगती
झूठी वाहवाही अच्छी नहीं लगती

सच, हक में .. फायदेमंद भी, पर
हमें कड़वी दवाई अच्छी नहीं लगती

तुझे ही हो मुबारक़ बुज़ुर्गों की हवेली
ये दीवार मेरे भाई अच्छी नहीं लगती

मोहब्बत में तकरार लाज़मी है मगर
पर अब ये लड़ाई अच्छी नहीं लगती

लुत्फ़ आता है हमें भी यूँ तो
पर हरदम बुराई अच्छी नहीं लगती

किसे है गुरेज़ ठहाकों कहकहों से
पर जगहंसाई अच्छी नहीं लगती

कुबूल है तेरी सारी बेवफ़ाइयां, ऐ दोस्त
तेरे मुंह से सफाई अच्छी नहीं लगती

चुरा ली नींदे नरम पलंग ने, पर क्या करें
घर में अब चारपाई अच्छी नहीं लगती

नज़र न आये मेरे अपने जहाँ से
हमें वो उंचाई अच्छी नहीं लगती

शराफत को ज़माना कमजोरी समझे
इतनी अच्छाई अच्छी नहीं लगती

कभी तो कीजिये सीधीसादी शायरी
हरदम ये गहराई अच्छी नहीं लगती

दुश्मनों को हैं कुबूल तारीफ़ यूं तो
पर दोस्तों को बड़ाई अच्छी नहीं लगती

तेरी बज़्म नवाज़ती है ‘खुलूस-ओ-दाद’ से
किसको ये कमाई अच्छी नहीं लगती

चल दिए पढ़कर, न लाइक न कमेंट
आपकी ये कोताही अच्छी नहीं लगती

फ़क़त इसलिए उसकी आदतें बुरी है
‘अमित’ को पारसाई अच्छी नहीं लगती

* पारसाई paarsaai = संयम, सदाचार Austerity, Morality

--अमित हर्ष

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