Monday, November 7, 2011

खुद को पढ़ता हूँ, छोड़ देता हूँ

खुद को पढ़ता हूँ, छोड़ देता हूँ
एक वर्क रोज मोड़ देता हूँ

इस क़दर ज़ख्म हैं निगाहों में
रोज एक आइना तोड़ देता हूँ

मैं पुजारी बरसते फूलों का
छु के शाखों को छोड़ देता हूँ

कासा-ए-शब में खून सूरज का
कतरा कतरा निचोड़ देता हूँ
(कासा-ए-शब : begging bowl of the night)

कांपते होंट भीगती पलकें
बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ

रेत के घर बना बना के फराज़
जाने क्यूं खुद ही तोड़ देता हूँ

--ताहिर फराज़

http://aligarians.com/2007/05/khud-ko-parhtaa-huun-chhor-detaa-huun/

No comments:

Post a Comment