Monday, November 7, 2011

भरोसा ही कुछ ऐसा था तुम्हारे लौट आने का

इरादा छोड़ दिया उसने हदों से जुड़ जाने का
ज़माना है, ज़माने की निगाहों में न आने का

कहाँ की दोस्ती, किन दोस्तों की बात करते हो
मियाँ दुश्मन नहीं मिलता कोई अब तो ठिकाने का

निगाहों में कोई भी दूसरा चेहरा नहीं आया
भरोसा ही कुछ ऐसा था तुम्हारे लौट आने का

ये मैं ही था बचा के खुद को ले आया किनारे तक
समंदर ने बहुत मौका दिया था डूब जाने का

--वसीम बरेलवी

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