हर क़दम पर नित नये सांचे में ढल जाते हैं लोग
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग
किस लिए कीजिए किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश
जब कि मिट्टी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग
कितने सादा-दिल हैं अब भी सुन के आवाज़-ए-जरस
पेश-ओ-पास से बे-खबर घर से निकल जाते हैं लोग
शमा की मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-न्याज़
अक्सर अपनी आग मैं चुप चाप जल जाते हैं लोग
शाएर उनकी दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
ठोकरें खा कर तो सुनते हैं संभल जाते हैं लोग
हिमायत अली शाएर
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Wednesday, November 23, 2011
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग
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bahut acha dost...........anup
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