Saturday, July 4, 2009

ज़िन्दगी तुझ को मनाने निकले

ज़िन्दगी तुझ को मनाने निकले
हम भी किस दर्जा दीवाने निकले
[दर्जा=type of, to what limit]


कुछ तो दुश्मन थे मुख़ालिफ़-सफ़ में
कुछ मेरे दोस्त पुराने निकले
[मुख़ालिफ़-सफ़=in the enemy camp]


नज़र_अन्दाज़ किया है उस ने
ख़ुद से मिलने के बहाने निकले

बे-बसारत है ये बस्ती यारो
आईना किस को दिखाने निकले
[बे-बसारत=blind]


इन अन्धेरों में जियोगे कब तक
कोई तो शमा जलाने निकले

--अमीर कज़लबाश


Source : http://www.urdupoetry.com/kazalbash02.html

1 comment:

  1. बहुत खूब,
    थोडा और आगे तक खीचते गजल को तो क्या बात थी !

    इन अन्धेरों में जियोगे कब तक
    कोई तो शमा जलाने निकले

    हर कोई बस यही सोच कर चुप है
    कि भला मैं ही क्यों माचिस खर्च करू !!

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