Friday, July 10, 2009

ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है

ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऎसी तनहाई की मार जाने को जी चाहता है

घर की वहशत से लरजता हूँ मगर जाने क्यों
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक ना बताये
ऎसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है

कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े
ऎसी मंजिल से गुज़र जाने को जी चाहता है

वही पैमान जो कभी जी को खुश आया था बहुत
उसी पैमान से मुकर जाने को जी चाहता है

[paimaan = promise]

-जनाब इफ्तिखार आरिफ

No comments:

Post a Comment