ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऎसी तनहाई की मार जाने को जी चाहता है
घर की वहशत से लरजता हूँ मगर जाने क्यों
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक ना बताये
ऎसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है
कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े
ऎसी मंजिल से गुज़र जाने को जी चाहता है
वही पैमान जो कभी जी को खुश आया था बहुत
उसी पैमान से मुकर जाने को जी चाहता है
[paimaan = promise]
-जनाब इफ्तिखार आरिफ
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