जिस की खातिर हम हुए हैं बेखबर आराम से
हाये वो ज़ालिम पड़ा है सेज पर आराम से
भूल जाओ जो भी था अब तक हमारे दर्मियां
उस ने मुझ से कह दिया ये किस कदर आराम से
दिल के ज़ख्मों को भी भर देता है मरहम वक्त का
ज़ख्म भर जायेंगें अपने भी मगर आराम से
गिर के फिर उठना सम्भलना फिर सम्भलना कर दौड़ना
वक्त सिखलाता है ये सारे हुनर आराम से
अपने खून से अब यारी इस की करते जाइये
हां समर देगा उम्मीदों का शजर आराम से
काश मेरे हाथ में तु हाथ देता कभी
कट ही जाता ज़िन्दगी का ये सफर आराम से
शायरी में कह दिया देखा जो सफर-ए-ज़ीस्त में
कर दिया असीम ने किस्सा मुख्तसर आराम से
--असीम कौमी
योगेश भाई, आपकी दृष्टि वाकई काबिले तारीफ है। बहुत ही शानदार गजल खोज कर लाए हैं आप।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }