Sunday, July 5, 2009

जिस की खातिर हम हुए हैं बेखबर आराम से

जिस की खातिर हम हुए हैं बेखबर आराम से
हाये वो ज़ालिम पड़ा है सेज पर आराम से

भूल जाओ जो भी था अब तक हमारे दर्मियां
उस ने मुझ से कह दिया ये किस कदर आराम से

दिल के ज़ख्मों को भी भर देता है मरहम वक्त का
ज़ख्म भर जायेंगें अपने भी मगर आराम से

गिर के फिर उठना सम्भलना फिर सम्भलना कर दौड़ना
वक्त सिखलाता है ये सारे हुनर आराम से

अपने खून से अब यारी इस की करते जाइये
हां समर देगा उम्मीदों का शजर आराम से

काश मेरे हाथ में तु हाथ देता कभी
कट ही जाता ज़िन्दगी का ये सफर आराम से

शायरी में कह दिया देखा जो सफर-ए-ज़ीस्त में
कर दिया असीम ने किस्सा मुख्तसर आराम से

--असीम कौमी

1 comment:

  1. योगेश भाई, आपकी दृष्टि वाकई काबिले तारीफ है। बहुत ही शानदार गजल खोज कर लाए हैं आप।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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