Tuesday, July 28, 2009

समन्दर मैं तुझसे वाकिफ हूँ मगर इतना बताता हूँ

समन्दर मैं तुझसे वाकिफ हूँ मगर इतना बताता हूँ
वो आंखें ज़्यादा गहरी हैं जिनमें मैं डूब जाता हूँ
--अज्ञात

Monday, July 27, 2009

हम तो मौजूद थे, अंधेरों में उजालों की तरह

हम तो मौजूद थे, अंधेरों में उजालों की तरह
तुमने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह
--अज्ञात

इस दौर के नौजवानों में ये चलन खास है

इस दौर के नौजवानों में ये चलन खास है
दुशवार है जिंदगी उस पर मोहब्बत की तलाश है

ये हुस्न-ओ-जमाल के खजाने नहीं मुफलिसों के लिये
हसीनाएं है परछाई उस शक़्स की दौलत जिसके पास है

तौहीन न करना कभी कह कर "कड़वा" शराब को
किसी ग़मजदा से पूछियेगा इसमें कितनी मिठास है

मौत इस निजाम में मर्ज़ क इलाज बन चुकी है
सहमे परिन्दोन को इस हक़ीक़त क एहसास है

ठोकर लगे खाली पैमाने सी जिन्दगी अपनी "कुरील"
सागर नहीं नसीब में और लबों पर प्यास है

-मनोज कुरील

Sunday, July 26, 2009

मेहरबां कभी ना-आशनाओं जैसा है

मेहरबां कभी ना-आशनाओं जैसा है
मिजाज़ उसका भी अजीब धूप छांव जैसा है
मैं उसे किस दिल से बेवफा कह दूँ
वो बेवफा तो नहीं बेवफाओं जैसा है
--अज्ञात

आपणे हथां च हाथ फड़ लैंदा मेरा

आपणे हथां च हाथ फड़ लैंदा मेरा
ता मैं एदा परायी हुन्दी ना

बण जान्दा जे दिल दा मरहम
मैं अपणी दुनिया लुटाई हुन्दी ना

तेरियां बाहां दा सहारा जे मिल जान्दा
ता मेरे को तनहाई हुन्दी ना

तु बण जान्दा जे ताकत मेरी
एह दुनिया विचकार आई हुन्दी ना

चाहे ला देन्दा कोई झूठा लारा
मैं आस ता मुकाई हुन्दी ना

लोकां दी थां मेरी परवाह कर लेन्दा
मेरे तो बेपरवाही हुन्दी ना

जे मना लेन्दा मैनूं आ के
ता फिर कोई रुसवाई हुन्दी ना

जे लुका लेन्दा दिल विच किते
ता मैं लोका दी सताई हुन्दी ना

जे वख ना मैनूँ होण देन्दा
फिर एह लम्बी जुदाई हुन्दी ना

इक वार कह देन्दा के तेरा ही है
ता मेरे तो बेवफाई हुन्दी ना

--अज्ञात

कहीं मैं कर न लूं यकीं

कहीं मैं कर न लूं यकीं
मेरे दिल से यूँ न खिताब कर
मुझे ज़िन्दगी की दुआ ना दे
मेरी आदतें ना खराब कर
--अज्ञात

मिजाज़ इतना भी न देखो सादा रहे

मिजाज़ इतना भी न देखो सादा रहे
कि दुश्मनों से ही दोस्ती का इरादा रहे
--आलोक मेहता


Source : http://deewan-e-alok.blogspot.com/2009/07/mijaj-itna-bhi-na-dekho-saada-rahe.html

Saturday, July 25, 2009

उसे मैं याद आता हूँ

उसे मैं याद आता हूँ मगर फुरसत के लम्हों में
मगर ये भी हकीकत है, उसे फुरसत नहीं मिलती
--अज्ञात

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हाये मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं

हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारो
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं

ये कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिन्दा
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं

उम्र भर जिनकी वफ़ाओं पे भरोसा कीजे
वक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं

--बशीर बद्र


Source : http://www.urdupoetry.com/bashir05.html

टूट जाने तलक गिरा मुझको

टूट जाने तलक गिरा मुझको
कैसी मिट्टी का हूं बता मुझको

मेरी खुश्बू भी मर ना जाये कहीं
मेरी जद से ना कर जुदा मुझको

घर मेरे हाथ बाँध देता है
वरना मैदान में देखना मुझको

अक़्ल कोई सज़ा है या इनाम
बड़ा सोचना पड़ा मुझको

हुस्न क्या चन्द रोज़ साथ रहा
आदतें अपनी दे गया मुझको

देख भगवे लिबास का जादू
सब समझते हैं पारसा मुझको

कोई मेरा मरज़ तो पहचाने
दर्द क्या और क्या दवा मुझको

मेरी ताकत ना जिस जगह पहुँची
उस जगह प्यार ले गया मुझको

ज़िन्दगी से नहीं निभा पाया
बस यही एक ग़म रहा मुझको

--हस्ती मल हस्ती

Wednesday, July 22, 2009

मैं रोता हूँ, आंखों में पानी नहीं रखता

मैं रोता हूँ, आंखों में पानी नहीं रखता
मैं लव्ज़ों में अपनी झूठी कहानी नहीं रखता
वो आये और आ कर अपनी यादों को भी ले जाये
मैं भूल जाने वालों की कोई निशानी नहीं रखता
--अज्ञात

ज़रा सी ज़िन्दगी है अरमान बहुत हैं

ज़रा सी ज़िन्दगी है अरमान बहुत हैं
हमदर्द नहीं कोई इंसान बहुत हैं
दिल का दर्द सुनायें तो सुनायें किसको
जो दिल के करीब है, वो अनजान बहुत है
--अज्ञात

बिछड़ गया है तो उसका साथ क्या मांगूँ

बिछड़ गया है तो उसका साथ क्या मांगूँ
ज़रा सी उम्र है, ग़म से निजात क्या मांगूँ
वो साथ होता तो होती ज़रूरतें भी बहुत
अकेली ज़ात के लिये कायनात क्या मांगूँ
--अज्ञात

Sunday, July 19, 2009

करेंगे क्या, मोहब्बत में नाकामयाब हो जाने के बाद

करेंगे क्या, मोहब्बत में नाकामयाब हो जाने के बाद
दीवानों को तो और कोई काम भी नहीं आता
--अज्ञात

बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में

बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में
कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में
[झिझक=hesitation; ज़िक्र=mention; फ़साना=tale]

बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में
[रुख़=face; नक़ाब=veil]

इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में

ये कह के टूट पड़ा शाख़-ए-गुल से आख़िरी फूल
अब और देर है कितनी बहार आने में

--कैफी आज़मी

जुदाई से ही कायम है, निज़ाम-ए-ज़िन्दगानी भी

जुदाई से ही कायम है, निज़ाम-ए-ज़िन्दगानी भी
बिछड़ जाता है, साहिल से टकरा कर पानी भी
--अज्ञात

यादों की मेज़…

यादों की मेज़ पर कोई तसवीर छोड़ दो
कब से मेरे ज़हन का कमरा उदास है
--अज्ञात

करिश्मे खूब मेरा जान-निसार करता था

करिश्मे खूब मेरा जान-निसार करता था
मिला के हाथ वो पीछे से वार करता था

वो जब भी ठोकता था कील मेरे सीने में
बड़ी अदा से उसे आर-पार करता था

सितारे तोड़ के लाया नहीं कोई अब तक
कि इस फ़रेब पे वो ऐतबार करता था

उसे पता था कि जीवन सफ़ेद चादर है
ना जाने क्यूं वो उसे दागदार करता था

कुछ इस लिये भी मुझे उसकी बात चुभती थी
कि वो ज़बान का ज़्यादा सिंगार करता था

पलट के आती नहीं है कभी नदी, यारो
मैं जानता था! मगर इंतज़ार करता था

--ज्ञान प्रकाश विवेक

Saturday, July 18, 2009

हमें कोई तुम सा मिल जाये ये नामुमकिन सही

हमें कोई तुम सा मिल जाये ये नामुमकिन सही
तुम्हें भी हम सा मिल जाये, बड़ा मुश्किल सा लगता है
--अज्ञात

तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी का ये आलम है के

तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी का ये आलम है के
सुबह के ग़म शाम को पुराने हो जाते है
--अज्ञात

कौन किसकी याद में रोता है उम्र भर

कौन किसकी याद में रोता है उम्र भर
फकत रीत है, जो शेरों में लिखी जाती है
--अज्ञात

याद करने के सिवा तुझे कर भी क्या सकते हैं

याद करने के सिवा तुझे कर भी क्या सकते हैं
भूल जाने में तुझे नाकाम हो जाने के बाद
--अज्ञात

Monday, July 13, 2009

बोलता है तो पता लगता है

बोलता है तो पता लगता है
ज़ख्म उसका भी नया लगता है

रास आ जाती है तन्हाई भी
एक दो रोज़ बुरा लगता है

कितने ज़ालिम हैं ये दुनिया वाले
घर से निकलो तो पता लगता है

आज भी वो नहीं आने वाला
आज का दिन भी गया लगता है

बोझ सीने पे बहुत है लेकिन
मुस्कुरा देने में क्या लगता है

दो कदम है अदालत, लेकिन
सोच लो! वक़्त बड़ा लगता है

--शक़ील जमाली

Sunday, July 12, 2009

वो कौन है जिन्हें तौबा की मिल गयी फुरसत
हमें गुनाह भी करने को ज़िन्दगी कम है
--आनन्द नारायण मुल्ला
कहूँ कुछ उनसे मगर ये खयाल होता है
शिकायतों का नतीजा अक्सर मलाल होता है
--परवीन शाकिर
मौत अंजाम-ए-जिंदगी है मगर ,
लोग मरते है जिंदगी के लिए ।
--साहिल मानिकपुरी

कौन कहता है मोहब्बत की ज़ुबाँ होती है

कौन कहता है मोहब्बत की ज़ुबाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है

वो ना आये तो सताती है ख़लिश सी दिल को
वो जो आये तो ख़लिश और जवाँ होती है

रूह को शाद करे दिल को जो पुरनूर करे
हर नज़ारे में ये तंवीर कहाँ होती है

ज़ब्त-ए-सैलाब-ए-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आँखों से अयाँ होती है

ज़िन्दगी एक सुलगती सी चिता है "साहिर"
शोला बनती है ना ये भुज के धुआँ होती है

--साहिर होशियारपुरी


Source : http://www.urdupoetry.com/shoshiarpuri01.html

मेरा दिल चाहता है कि वीराना कह दूँ,

मेरा दिल चाहता है कि वीराना कह दूँ,
मैं इस एक पल को कैसे ज़माना कह दूँ,

सब लोग हँसते हैं पर दिल नही हँसता,
इस जमघट को कैसे दोस्ताना कह दूँ।

माना की तूने मुझे दिया है बहुत कुछ,
पर तू ही बता कैसे खैरात को नजराना कह दूँ।

जानता हूँ के कई लोग ख़ुद को शम्मा कहते हैं,
मेरा जिगर नही की मैं ख़ुद को परवाना कह दूँ।

तू चाहे की मेरे घर को मैं ताजमहल कहूँ,
मैं तो फकीर हूँ तू बता कैसे अमीराना कह दूँ।

मैं तो घर को घर ही कहता रहूँगा सदा,
मुमकिन नही बेकस कि शराबखाना कह दूँ।

--अज्ञात


Source : http://bsbekas.blogspot.com/2008/08/blog-post_4590.html

बहुत अजीब है बंदिशें मोहब्बत की

बहुत अजीब है बंदिशें मोहब्बत की फ़राज़
न उसने कैद में रखा न हम फ़रार हुए
--अहमद फराज़

अब मिलेंगें तो खूब रुलायेंगें

अब मिलेंगें तो खूब रुलायेंगें उस संगदिल को फ़राज़
सुना है रोते में उसे लिपट जाने कि आदत है
--अहमद फराज़

कहीं तनहा न कर दे तुझे मनफ़रीद रहने का शौक फ़राज़

कहीं तनहा न कर दे तुझे मनफ़रीद रहने का शौक फ़राज़
जब दिल ढले तो किसी से हाल-ए-दिल कह दिया कर
--अहमद फराज़

कौन तौलेगा अब हीरों में मेरे आंसू

कौन तौलेगा अब हीरों में मेरे आंसू फ़राज़
वो जो दर्द का ताजिर था दुकान छोड़ गया
--अहमद फराज़

मैं अकेला वारिस हूँ, उसकी तमाम नफरतों का

मैं अकेला वारिस हूँ, उसकी तमाम नफरतों का
जो शक्स सारे शहर में प्यार बांटता है
--अज्ञात

जे रब मिलदा जंगल जायां

जे रब मिलदा जंगल जायां
मिलदा चाम चड़खियां नूँ

जे रब मिलदा नहातयां धोतयां
मिलदा डडुआं मच्छियां नूँ

जे रब मिलदा टल वजायां
मिलदा गऊँआं वच्छियां नूँ

बुल्ले शाह इंज रब नहीं मिलदा
रब मिलदा ए नीतां अच्छियां नूँ

--बुल्ले शाह

Saturday, July 11, 2009

ज़िन्दगी का अजब दस्तूर देखा

ज़िन्दगी का अजब दस्तूर देखा
जिसे चाहा उसे मजबूर देखा

दिल के एक छोटे से ज़ख्म को
हमने बनते हुए नासूर देखा

वफ़ा करना ही मेरा कुसूर था
बेवफा को हमने बेकसूर देखा

गुमनामी में गुज़री ज़िन्दगी अपनी
उस पर शोहरत का सुरूर देखा

--अज्ञात

रोज़ तारों की नुमाईश में खलल पड़ता है

रोज़ तारों की नुमाईश में खलल पड़ता है
चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है
उनकी याद आई है, सांसो ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है
--राहत इंदोरी

Friday, July 10, 2009

ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है

ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऎसी तनहाई की मार जाने को जी चाहता है

घर की वहशत से लरजता हूँ मगर जाने क्यों
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक ना बताये
ऎसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है

कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े
ऎसी मंजिल से गुज़र जाने को जी चाहता है

वही पैमान जो कभी जी को खुश आया था बहुत
उसी पैमान से मुकर जाने को जी चाहता है

[paimaan = promise]

-जनाब इफ्तिखार आरिफ

Thursday, July 9, 2009

माना के मैं बुरा हूँ, मगर इतना भी नहीं

माना के मैं बुरा हूँ, मगर इतना भी नहीं
कुछ नज़रों से गिरा हूँ, मगर इतना भी नहीं
कोशिश तो करे कोई मुझे समेटने की मैं
टूट के बिखरा हूँ, मगर इतना भी नहीं

--अज्ञात

Wednesday, July 8, 2009

तुमको खबर हुई न ही ज़माना समझ सका

तुमको खबर हुई न ही ज़माना समझ सका
हम तुम पे चुपके चुपके कईं बार मर गये
--अज्ञात

दिल तेज़ धड़कने का कोई राज़ नहीं था

दिल तेज़ धड़कने का कोई राज़ नहीं था
इक ख्वाब ही टूटा था कोई ताज नहीं था
--अज्ञात

Tuesday, July 7, 2009

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं

ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहनेवाले
जीनेवाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं

फ़ासले उम्र के कुछ और बड़ा देती है
जाने क्यूँ लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं

चंद मासूम से पत्तों का लहू है "फ़ाकिर"
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं

--सुदर्शन फ़ाकिर

चाँद निकला था मगर रात ना थी पहली सी

चाँद निकला था मगर रात ना थी पहली सी

ये मुलाक़ात, मुलाक़ात ना थी पहली सी

रंज कुछ कम तो हुआ आज तेरे मिलने से

ये अलग बात है के वो बात ना थी पहली सी

--अज्ञात

तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए

तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए
दिल मिले तो जान के दुशमन क़बीले हो गए

आज हम बिछ़ड़े हैं तो कितने रँगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए

अब तेरी यादों के नशतर भी हुए जाते हैं *कुंद
हमको कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए

कब की पत्थर हो चुकीं थीं मुंतज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए

अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरजू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गए

--शाहिद कबीर


Source : http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/07/blog-post.html

Monday, July 6, 2009

वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देख कर

वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देख कर
मैं ने उन को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
--ज़हूर नज़र


Source : http://www.urdupoetry.com/znazar01.html

Sunday, July 5, 2009

जिस की खातिर हम हुए हैं बेखबर आराम से

जिस की खातिर हम हुए हैं बेखबर आराम से
हाये वो ज़ालिम पड़ा है सेज पर आराम से

भूल जाओ जो भी था अब तक हमारे दर्मियां
उस ने मुझ से कह दिया ये किस कदर आराम से

दिल के ज़ख्मों को भी भर देता है मरहम वक्त का
ज़ख्म भर जायेंगें अपने भी मगर आराम से

गिर के फिर उठना सम्भलना फिर सम्भलना कर दौड़ना
वक्त सिखलाता है ये सारे हुनर आराम से

अपने खून से अब यारी इस की करते जाइये
हां समर देगा उम्मीदों का शजर आराम से

काश मेरे हाथ में तु हाथ देता कभी
कट ही जाता ज़िन्दगी का ये सफर आराम से

शायरी में कह दिया देखा जो सफर-ए-ज़ीस्त में
कर दिया असीम ने किस्सा मुख्तसर आराम से

--असीम कौमी

मैं एक खिलौना हूँ, और वो उस बच्चे की मानिंद

मैं एक खिलौना हूँ, और वो उस बच्चे की मानिंद
जिसे प्यार तो है मुझसे, मगर सिर्फ़ खेलने की हद तक
--अज्ञात

बड़ी मुश्किल से कल रात मैने सुलाया खुद को

बड़ी मुश्किल से कल रात मैने सुलाया खुद को
इन आंखो को तेरे ख्वाब का लालच दे कर
--अहमद फराज़

Saturday, July 4, 2009

ज़िन्दगी तुझ को मनाने निकले

ज़िन्दगी तुझ को मनाने निकले
हम भी किस दर्जा दीवाने निकले
[दर्जा=type of, to what limit]


कुछ तो दुश्मन थे मुख़ालिफ़-सफ़ में
कुछ मेरे दोस्त पुराने निकले
[मुख़ालिफ़-सफ़=in the enemy camp]


नज़र_अन्दाज़ किया है उस ने
ख़ुद से मिलने के बहाने निकले

बे-बसारत है ये बस्ती यारो
आईना किस को दिखाने निकले
[बे-बसारत=blind]


इन अन्धेरों में जियोगे कब तक
कोई तो शमा जलाने निकले

--अमीर कज़लबाश


Source : http://www.urdupoetry.com/kazalbash02.html

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता

--कैफी आज़मी


Source : http://www.urdupoetry.com/kaifi07.html

आंखें बयां कर देती हैं दिल के राज़ अक्सर

आंखें बयां कर देती हैं दिल के राज़ अक्सर
बहुत खामोश मोहब्बत की ज़ुबां होती है
--अज्ञात

Thursday, July 2, 2009

शोला-ए-ग़म में जल रहा है कोई

शोला-ए-ग़म में जल रहा है कोई
लम्हा-लम्हा पिघल रहा है कोई

शाम यूँ तीरगी में ढलती है
जैसे करवट बदल रहा है कोई

उसके वादे हैं जी लुभाने की शय
और झूठे बहल रहा है कोई

ख्वाब में भी गुमां ये होता है
जैसे पलकों पे चल रहा है कोई

दिल की आवारगी के दिन आये
फिर से अरमाँ मचल रहा है कोई

मुझको क्योंकर हो एतबारे-वफ़ा
मेरी जाने-ग़ज़ल रहा है कोई

--मनु बेतखल्लुस


Source : http://kavita.hindyugm.com/2009/07/uske-vaade-jee-lubhane-ki-shai.html

तूने जो ना कहा, मैं वो सुनता रहा

तूने जो ना कहा, मैं वो सुनता रहा
खा मखां बेवजह, ख्वाब बुनता रहा

न्यू यार्क फिल्म का गीत

लौट आती है मेरी शब की इबादत खाली

लौट आती है मेरी शब की इबादत खाली
जाने किस अर्श पे रहता है, खुदा शाम के बाद
--अज्ञात

धुंध सी छाई हुई है आज घर के सामने

धुंध सी छाई हुई है आज घर के सामने
कुछ नज़र आता नहीं है अब नज़र के सामने

सर कटाओ या हमारे सामने सजदा करो
शर्त ये रख दी गयी है हर बशर के सामने

सोचता हूँ क्यूं अदालत ने बरी उसको किया
क़त्ल करके जो गया सारे नगर के सामने

देर तक देखा मुझे और फ़िर किसी ने ये कहा
आज तो मुझको पढ़ो मैं हूं नज़र के सामने

कल सड़क पर मर गये थे ठंड से कुछ आदमी
देश की उन्नति बताते पोस्टर के सामने

लौटना मत बीच से पूरा करो अपना सफ़र
हल करो वो मुश्किलें जो हैं डगर के सामने

--नित्यानंद तुशार

Wednesday, July 1, 2009

हम पर दुख का पर्वत टूटा, तब हमने दो चार कहे

हम पर दुख का पर्वत टूटा, तब हमने दो चार कहे
उस पर क्या बीती होगी, जिसने शेर हज़ार कहे
--बालस्वरूप राही

रासता है कि कटता जाता है

रासता है कि कटता जाता है
फासला है कि कम नहीं होता
--काबिल अजमेरी