रिश्तों की कहकशां सर-ए-बाज़ार बेचकर
घर को बचा लिया दर-ओ-दीवार बेचकर
शौहरत की भूख हमको कहाँ ले के आ गयी
हम मोहतरम हुए भी तो किरदार बेचकर
वो शक्स सूरमा है, मगर बाप भी तो है
रोटी खरीद लाया है, तलवार बेचकर
जिसके कलाम ने मुद्दतों बोये हैं इनकलाब
अब पेट पालता है, वो अखबार बेचकर
अब चाहे जो सुलूक करे आपका ये शहर
हम गांव से तो आ गये घर बार बेच कर
--मुनव्वर राणा
It is by Miraz fazabadi not Munawar Rana
ReplyDeleteJi , Meraj Faizabadi
ReplyDelete