ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
[तीर-ए-नीमकश=half drawn arrow, ख़लिश=pain ]
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
[शब-ए-गम=गम की रात]
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
[गर्क=drown/sink]
--मिरज़ा ग़ालिब
Source : http://www.urdupoetry.com/ghalib61.html
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Saturday, March 6, 2010
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
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