अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार ना डाले मुझको
मैं समंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको
तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू ना गँवाले मुझको
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या ना रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको
ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजाले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
वादा फिर वादा है, मैं ज़हर भी पी जाऊं कतील
शर्त ये है कोई बाहों में संभाले मुझको
--कतील शिफाई
Source : http://www.urdupoetry.com/qateel04.html
If you know, the author of any of the posts here which is posted as Anonymous.
Please let me know along with the source if possible.
Wednesday, March 17, 2010
अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
ReplyDeleteकर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको...
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल है... गहरी सोच
i really love this ghazal....jagjit singh ji ki awaaz mein bahot suna hai ise...but with full lyrics pehli baar padh rahi hun....hats off to u....awesome ghazal...//
ReplyDeleteबहुत कुछ सीखने को मिलता है कतील साहब की ग़ज़लों से | उनकी बेहतरीन रवानी उन्हें अलग पहचान देती है
ReplyDeleteअनुराग सिंह "ऋषी"