Wednesday, March 17, 2010

अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको

अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार ना डाले मुझको

मैं समंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू ना गँवाले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या ना रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको

ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजाले मुझको

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको

वादा फिर वादा है, मैं ज़हर भी पी जाऊं कतील
शर्त ये है कोई बाहों में संभाले मुझको

--कतील शिफाई

Source : http://www.urdupoetry.com/qateel04.html

3 comments:

  1. ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
    कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको...

    बहुत ही अच्छी ग़ज़ल है... गहरी सोच

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  2. i really love this ghazal....jagjit singh ji ki awaaz mein bahot suna hai ise...but with full lyrics pehli baar padh rahi hun....hats off to u....awesome ghazal...//

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  3. बहुत कुछ सीखने को मिलता है कतील साहब की ग़ज़लों से | उनकी बेहतरीन रवानी उन्हें अलग पहचान देती है
    अनुराग सिंह "ऋषी"

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