Sunday, September 13, 2009

किसी सूरत न होगी इल्तिजा हमसे

किसी सूरत न होगी इल्तिजा हमसे
वो होता है तो हो जाए ख़फ़ा हमसे

जो हो हक़ बात कह देते हैं महफ़िल में
कि हो जाती है अक्सर ये ख़ता हमसे

कुछ ऐसा अपनापन इक अजनबी में है
वो सदियों से हो जैसे आशना हमसे...
[आशना=परिचित]

नज़र से दूर लेकिन दिल में रहता है
जुदा हो कर भी कब है वो जुदा हमसे

लबों को ज़हमते—जुम्बिश न दे प्यारे....
तिरी आँखों ने सब कुछ कह दिया हमसे
[ज़हमते—जुम्बिश=होंठ हिलाने का कष्ट]

तही-दस्ती का आलम ‘शौक़’ क्या कहिये
चुराते हैं नज़र अब आशना हमसे.
[तही-दस्ती=निर्धनता]

--सुरेश चन्द्र 'शौक'

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