बरसो बाद मिले जो चंद लफ़्ज़ गुफ़्तगू को ना निकले,
वो यार जो पहलू में कभी घन्टों बिताते थे,
--आलोक मेहता
If you know, the author of any of the posts here which is posted as Anonymous.
Please let me know along with the source if possible.
Tuesday, June 30, 2009
Sunday, June 28, 2009
घर आ के मां बाप बहुत रोये अकेले में
घर आ के मां बाप बहुत रोये अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते ना थे मेले में
--अज्ञात
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते ना थे मेले में
--अज्ञात
कभी कभी हम यूँ भी दिल को बहलाया करते हैं
कभी कभी हमने अपने दिल को यूँ भी बहलाया है
जिन बातों को हम नहीं समझे, औरों को समझाया हैं
--निदा फ़ाज़ली
जिन बातों को हम नहीं समझे, औरों को समझाया हैं
--निदा फ़ाज़ली
कदम रुक से गये हैं फूल बिकते देख कर मेरे
कदम रुक से गये हैं फूल बिकते देख कर मेरे
मैं अक्सर उस से कहता था, मोहब्बत फूल होती है
--अज्ञात
मैं अक्सर उस से कहता था, मोहब्बत फूल होती है
--अज्ञात
मुलाकातें ज़रूरी हैं अगर रिश्ते बचाने हैं
मुलाकातें ज़रूरी हैं अगर रिश्ते बचाने हैं
लगा कर भूल जाने से तो पौधे भी सूख जाते हैं
--अज्ञात
लगा कर भूल जाने से तो पौधे भी सूख जाते हैं
--अज्ञात
उसने कहा कौन सा तोहफा मैं तुम्हे दूँ
उसने कहा कौन सा तोहफा है मनपसंद
मैने कहा वही शाम जो अब तक उधार है
--अज्ञात
मैने कहा वही शाम जो अब तक उधार है
--अज्ञात
हमसे ना पूछ मोहब्बत के मायने ए दोस्त
हमसे ना पूछ मोहब्बत के मायने ए दोस्त
हमने बरसों एक बन्दे को खुदा माना है
--अज्ञात
हमने बरसों एक बन्दे को खुदा माना है
--अज्ञात
Wednesday, June 24, 2009
जिनके आँगन में अमीरी का शजर लगता है,
जिनके आँगन में अमीरी का शजर लगता है,
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है
--अन्जुम रहबर
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है
--अन्जुम रहबर
किसी और का ज़िक्र उसे गवारा नहीं आलोक
किसी और का ज़िक्र उसे गवारा नहीं आलोक
जब मिलती है, खुद में दुनिया समेट लेती है
--आलोक मेहता
जब मिलती है, खुद में दुनिया समेट लेती है
--आलोक मेहता
Sunday, June 21, 2009
मेरी इन गज़लों को उठा कर संभाल कर फेकना
मेरी इन गज़लों को उठा कर संभाल कर फेकना
महफ़िल-ए-यार में ना दिल उछाल कर फेकना
इश्क-ओ- आबरू-ओ- शर्म-ओ- हया गजब है
नफरत को ए साहब दिल से निकाल कर फेकना
हस्ती जब तलक इस मैदान-ए-गुलसिता में मेरी
रहगी फ़ितरत यारो इश्क को बेहाल कर फेकना
ये हुआ की जाट साहब सिर्फ चंद बाते कह पाए
की यारो को मोहब्बत में माला-माल कर फेकना
"बेदिल" के कारनामे दिल्ली में मशहूर हो चले है
मुझे दिल से फेकना दोस्त मगर ख्याल कर फेकना
--दीपक 'बेदिल'
महफ़िल-ए-यार में ना दिल उछाल कर फेकना
इश्क-ओ- आबरू-ओ- शर्म-ओ- हया गजब है
नफरत को ए साहब दिल से निकाल कर फेकना
हस्ती जब तलक इस मैदान-ए-गुलसिता में मेरी
रहगी फ़ितरत यारो इश्क को बेहाल कर फेकना
ये हुआ की जाट साहब सिर्फ चंद बाते कह पाए
की यारो को मोहब्बत में माला-माल कर फेकना
"बेदिल" के कारनामे दिल्ली में मशहूर हो चले है
मुझे दिल से फेकना दोस्त मगर ख्याल कर फेकना
--दीपक 'बेदिल'
मेरी खुशियाँ,मेरा,गुरूर,मेरा आत्मसम्मान सब पीछे छूटा है,
मेरी खुशियाँ,मेरा,गुरूर,मेरा आत्मसम्मान सब पीछे छूटा है,
बोलो कौन सी कचहरी में जाऊं कि मेरा विश्वास टूटा है...
-स्वीट 'जज्बाती'
बोलो कौन सी कचहरी में जाऊं कि मेरा विश्वास टूटा है...
-स्वीट 'जज्बाती'
Saturday, June 20, 2009
अपने साये से भी अश्क़ों को छुपा कर रोना
अपने साये से भी अश्क़ों को छुपा कर रोना
जब भी रोना हो चराग़ों को बुझा कर रोना
हाथ भी जाते हुये वो तो मिला कर ना गया
मैने चाहा जिसे सीने से लगा कर रोना
तेरे दीवाने का क्या हाल किया है ग़म ने
मुस्कुराते हुये लोगों में भी जा कर रोना
लोग पढ़ लेते हैं चेहरे पे लिखीं तहरीरें
इतना दुशवार है लोगों से छुपा कर रोना
--निसार तरीन जाज़िब
Source : http://www.urdupoetry.com/jazib01.html
जब भी रोना हो चराग़ों को बुझा कर रोना
हाथ भी जाते हुये वो तो मिला कर ना गया
मैने चाहा जिसे सीने से लगा कर रोना
तेरे दीवाने का क्या हाल किया है ग़म ने
मुस्कुराते हुये लोगों में भी जा कर रोना
लोग पढ़ लेते हैं चेहरे पे लिखीं तहरीरें
इतना दुशवार है लोगों से छुपा कर रोना
--निसार तरीन जाज़िब
Source : http://www.urdupoetry.com/jazib01.html
लाख बंद करें मैखाने ज़माने वाले
लाख बंद करें मैखाने ज़माने वाले
दुनिया में कम नहीं हैं आंखों से पिलाने वाले
--अज्ञात
दुनिया में कम नहीं हैं आंखों से पिलाने वाले
--अज्ञात
मरेंगें और हमारे सिवा भी तुम पे बहुत
मरेंगें और हमारे सिवा भी तुम पे बहुत
ये जुर्म है तो फिर इस जुर्म की सज़ा रखना
--ज़फर
ये जुर्म है तो फिर इस जुर्म की सज़ा रखना
--ज़फर
माना के साकी के पास जाम बहुत है
माना के साकी के पास जाम बहुत है
पर हमें भी दुनिया में काम बहुत है
आरज़ू, अरमान, इश्क़, तमन्ना, वफ़ा, मोहब्बत
चीज़ें तो अच्छी हैं पर दाम बहुत है
ऐसा भी है कोई जो ग़ालिब को ना जाने
शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है
--मिरज़ा ग़ालिब
मुझे ये गज़ल एक दोस्त ने भेजी थी, ग़ालिब के तखल्लुस से लगा कि मिरज़ा ग़ालिब की होनी चाहिये, इस लिये शायर का नाम मिरज़ा ग़ालिब लिख रहा हूँ। अगर ग़लत हो, तो बताईयेगा
पर हमें भी दुनिया में काम बहुत है
आरज़ू, अरमान, इश्क़, तमन्ना, वफ़ा, मोहब्बत
चीज़ें तो अच्छी हैं पर दाम बहुत है
ऐसा भी है कोई जो ग़ालिब को ना जाने
शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है
--मिरज़ा ग़ालिब
मुझे ये गज़ल एक दोस्त ने भेजी थी, ग़ालिब के तखल्लुस से लगा कि मिरज़ा ग़ालिब की होनी चाहिये, इस लिये शायर का नाम मिरज़ा ग़ालिब लिख रहा हूँ। अगर ग़लत हो, तो बताईयेगा
वो कहां जाता किसे कोई सफ़ाई देता
वो कहां जाता किसे कोई सफ़ाई देता
अपने आगे जिसे कुछ भी ना दिखाई देता
वो कोई जज़्बा समझने ही को तैयार नहीं
मैं कहां तक उसे रिश्तों की दुहाई देता
एक अनदेखे सफ़र पर ही निकलना होगा
प्यार में रास्ता होता तो दिखाई देता
घर से निकला हूं कि दिन जीत के अब लौटूँगा
रात आती तो यही ख्वाब दिखाई देता
किस तरह घर के बडे शहर जलाने निकले
काश बच्चों को ये मंज़र ना दिखाई देता
तुझसे हट कर मैं किसे देखता तेरे जैसा
कोई अन्दाज़ किसी में तो दिखाई देता
रौशनी देगा मेरे घर को कहां ऐसा चिराग़
तेरे चेहरे की बदौलत जो दिखाई देता
वसीम बरेलवी
अपने आगे जिसे कुछ भी ना दिखाई देता
वो कोई जज़्बा समझने ही को तैयार नहीं
मैं कहां तक उसे रिश्तों की दुहाई देता
एक अनदेखे सफ़र पर ही निकलना होगा
प्यार में रास्ता होता तो दिखाई देता
घर से निकला हूं कि दिन जीत के अब लौटूँगा
रात आती तो यही ख्वाब दिखाई देता
किस तरह घर के बडे शहर जलाने निकले
काश बच्चों को ये मंज़र ना दिखाई देता
तुझसे हट कर मैं किसे देखता तेरे जैसा
कोई अन्दाज़ किसी में तो दिखाई देता
रौशनी देगा मेरे घर को कहां ऐसा चिराग़
तेरे चेहरे की बदौलत जो दिखाई देता
वसीम बरेलवी
Friday, June 19, 2009
आंखों की ज़ुबां की एहमियत माना खूब है इसमें
आंखों की ज़ुबां की एहमियत माना खूब है इसमें
मगर उल्फत लव्ज़ों में बयां हो, तो बुरा क्या है
--आलोक मेहता
मगर उल्फत लव्ज़ों में बयां हो, तो बुरा क्या है
--आलोक मेहता
कुछ बातें कह दी जायें तो मुनासिब हैं
कुछ बातें कह दी जायें तो मुनासिब हैं
कि प्यार हो या नफरत ज़ाहिर हो जाये तो अच्छा
--आलोक मेहता
कि प्यार हो या नफरत ज़ाहिर हो जाये तो अच्छा
--आलोक मेहता
Thursday, June 18, 2009
अपनी तो दास्तान-ए-इश्क़ का ये पहलू रहा फराज़
अपनी तो दास्तान-ए-इश्क़ का ये पहलू रहा फराज़
नज़रें मिली थी जिस से मुकद्दर न मिल सका
--अहमद फराज़
नज़रें मिली थी जिस से मुकद्दर न मिल सका
--अहमद फराज़
Sunday, June 14, 2009
अब मेरे मरने वालो, खुदारा जवाब दो
अब मेरे मरने वालो, खुदारा जवाब दो
वो बार बार पूछते हैं कौन मर गया?
--अज्ञात
वो बार बार पूछते हैं कौन मर गया?
--अज्ञात
निगाहों पर निगाहों के पहरे होते हैं
निगाहों पर निगाहों के पहरे होते हैं
इन निगाहों के घाव भी गहरे होते हैं
न जाने क्यों कोसते हैं लोग बदसूरतों को
बरबाद करने वाले तो हसीन चेहरे होते हैं
--अज्ञात
इन निगाहों के घाव भी गहरे होते हैं
न जाने क्यों कोसते हैं लोग बदसूरतों को
बरबाद करने वाले तो हसीन चेहरे होते हैं
--अज्ञात
दिल की बातें दिल में रह गयी , जुबाँ पे आया कुछ भी नहीं
दिल की बातें दिल में रह गयी , जुबाँ पे आया कुछ भी नहीं
सोचा बहुत था, पर आई जब तुम, हमने बताया कुछ भी नहीं
कभी ये मोती, कभी ये शबनम , तुम्हारा कतरा गंगाजल नम
गम तो यहाँ भी दबे बहुत थे, हमने बहाया कुछ भी नहीं
बादल, बिजली, सूरज , चंदा, तारें, मौसम सब तुम हो
जो कुछ था सब तुमपे लुटाया, हमने बचाया कुछ भी नहीं
दुःख सब मेरे, सुख सब तेरे, हम है तेरे गम के लुटेरे
दर्द की वैसे खेती की है, तुझे भिजवाया कुछ भी नहीं
चंचल आँखें, नाजुक बातें , चाँद सा चेहरा , जुल्फें रातें
एक झलक में इतना सब कुछ, अभी दिखाया कुछ भी नहीं
बदन धूप का, खिले रूप का, फूल-सी खुशबू , अल्ला हू
सारी नेमत तेरे हिस्से , हमने पाया कुछ भी नहीं
तेरा पसीना ओस की बूंदें , आसूं तेरे गौहर हैं
हम जो हँसें तो बने गुनाह, तूने जो रुलाया कुछ भी नहीं
पता हैं तूने पिया न पानी, चाँद जो तुझको दिखा नहीं
मैंने भी है साथ निभाया , सुबह से खाया कुछ भी नहीं
मेरी बरकत, मेरी शोहरत, सब तुझसे ही रोशन हैं
जो कुछ है सब तेरा है, मेरा कमाया कुछ भी नहीं
- अमित अरुण साहू , वर्धा
सोचा बहुत था, पर आई जब तुम, हमने बताया कुछ भी नहीं
कभी ये मोती, कभी ये शबनम , तुम्हारा कतरा गंगाजल नम
गम तो यहाँ भी दबे बहुत थे, हमने बहाया कुछ भी नहीं
बादल, बिजली, सूरज , चंदा, तारें, मौसम सब तुम हो
जो कुछ था सब तुमपे लुटाया, हमने बचाया कुछ भी नहीं
दुःख सब मेरे, सुख सब तेरे, हम है तेरे गम के लुटेरे
दर्द की वैसे खेती की है, तुझे भिजवाया कुछ भी नहीं
चंचल आँखें, नाजुक बातें , चाँद सा चेहरा , जुल्फें रातें
एक झलक में इतना सब कुछ, अभी दिखाया कुछ भी नहीं
बदन धूप का, खिले रूप का, फूल-सी खुशबू , अल्ला हू
सारी नेमत तेरे हिस्से , हमने पाया कुछ भी नहीं
तेरा पसीना ओस की बूंदें , आसूं तेरे गौहर हैं
हम जो हँसें तो बने गुनाह, तूने जो रुलाया कुछ भी नहीं
पता हैं तूने पिया न पानी, चाँद जो तुझको दिखा नहीं
मैंने भी है साथ निभाया , सुबह से खाया कुछ भी नहीं
मेरी बरकत, मेरी शोहरत, सब तुझसे ही रोशन हैं
जो कुछ है सब तेरा है, मेरा कमाया कुछ भी नहीं
- अमित अरुण साहू , वर्धा
अब भी न हो कुबूल तो किसमत की बात है
अब भी न हो कुबूल तो किसमत की बात है
आ-मीन कह रहे हैं वो, मेरी दुआ के साथ
--अज्ञात
आ-मीन कह रहे हैं वो, मेरी दुआ के साथ
--अज्ञात
कौन कहता है गम नहीं है रे
कौन कहता है गम नहीं है रे
आँख ही बस ये नम नहीं है रे
चाहता है तू आदमी होना
आरजू ये भी कम नहीं है रे
मैं हूँ, बस मैं ही, सिर्फ मैं ही हूँ
एक भी शब्द "हम" नहीं है रे
थी दुआ जिसकी बेअसर उसकी
बद्दुआ में भी दम नहीं है रे
वो मेरा हमसफ़र तो होगा पर
वो मेरा हमकदम नहीं है रे
दर्द दे और छीन ले आँसू
इससे बढ़कर सितम नहीं है रे
खुद को 'अद्भुत' मैं मान लूं शायर
मुझको इतना भी भ्रम नहीं है रे
-अरुण मित्तल अद्भुत
Source : http://kavita.hindyugm.com/2009/06/blog-post_12.html
आँख ही बस ये नम नहीं है रे
चाहता है तू आदमी होना
आरजू ये भी कम नहीं है रे
मैं हूँ, बस मैं ही, सिर्फ मैं ही हूँ
एक भी शब्द "हम" नहीं है रे
थी दुआ जिसकी बेअसर उसकी
बद्दुआ में भी दम नहीं है रे
वो मेरा हमसफ़र तो होगा पर
वो मेरा हमकदम नहीं है रे
दर्द दे और छीन ले आँसू
इससे बढ़कर सितम नहीं है रे
खुद को 'अद्भुत' मैं मान लूं शायर
मुझको इतना भी भ्रम नहीं है रे
-अरुण मित्तल अद्भुत
Source : http://kavita.hindyugm.com/2009/06/blog-post_12.html
Saturday, June 13, 2009
सीढ़ीयां उन्हें मुबारक हों
सीढ़ीयां उन्हें मुबारक हों
जिन्हें छत तक जाना है
जिनकी मन्ज़िल आसमां है
अपना रास्ता खुद बनाना है
--अज्ञात
जिन्हें छत तक जाना है
जिनकी मन्ज़िल आसमां है
अपना रास्ता खुद बनाना है
--अज्ञात
हर लव्ज़ किताबों में तेरा अक्स लिये है
हर लव्ज़ किताबों में तेरा अक्स लिये है
एक चांद सा चेहरा है, जो पढ़ने नहीं देता
--अज्ञात
एक चांद सा चेहरा है, जो पढ़ने नहीं देता
--अज्ञात
Thursday, June 11, 2009
मुझसे मिलने के वो करता था बहाने कितने
मुझसे मिलने के वो करता था बहाने कितने
अब गुज़ारेगा मेरे साथ ज़माने कितने
मैं गिरा था तो बहुत लोग रुके थे लेकिन
सोचता हूं मुझे आये थे उठाने कितने
जिस तरह मैने तुझे अपना बना रक्खा है
सोचते होंगें यही बात ना जाने कितने
तुम नया ज़ख्म लगाओ! तुम्हे इस से क्या है
भरने वाले हैं अभी ज़ख्म पुराने कितने
--सीमाब अकबराबादी
अब गुज़ारेगा मेरे साथ ज़माने कितने
मैं गिरा था तो बहुत लोग रुके थे लेकिन
सोचता हूं मुझे आये थे उठाने कितने
जिस तरह मैने तुझे अपना बना रक्खा है
सोचते होंगें यही बात ना जाने कितने
तुम नया ज़ख्म लगाओ! तुम्हे इस से क्या है
भरने वाले हैं अभी ज़ख्म पुराने कितने
--सीमाब अकबराबादी
Tuesday, June 9, 2009
सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
इल्ज़ाम आईनों पे लगाना फ़िज़ूल है.
तेरी नवाज़िशें हों तो कांटा भी फूल है
ग़म भी मुझे क़बूल, खुशी भी क़बूल है
उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़िज़ूल है
जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफ़ा दिया मुझे
दुश्मन ज़रूर है वो मगर बा-उसूल है
--अंजुम रहबर
इल्ज़ाम आईनों पे लगाना फ़िज़ूल है.
तेरी नवाज़िशें हों तो कांटा भी फूल है
ग़म भी मुझे क़बूल, खुशी भी क़बूल है
उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़िज़ूल है
जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफ़ा दिया मुझे
दुश्मन ज़रूर है वो मगर बा-उसूल है
--अंजुम रहबर
Sunday, June 7, 2009
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
दोस्तो, राज़ फिल्म में इस्तेमाल किया गयी एक बहुत ही खूबसूरत गज़ल है
हालाकि फिल्म में इस गज़ल में बदलाव कर के पेश किया गया है
Original गज़ल इस प्रकार है, और कतील शिफ़ाई द्वारा लिखी गई है
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं
बच निकलते हैं अगर आतिह-ए-सय्याद से हम
शोला-ए-आतिश-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं
ख़ुदनुमाई तो नहीं शेवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा
जिन को जलना हो वो आराम से जल जाते हैं
शमा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिये
हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं
जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ
जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं
रब्ता बाहम पे हमें क्या ना नहेंगे दुश्मन
आशना जब तेरे पैग़ाम से जल जाता है
--क़तील शिफ़ाई
Source : http://www.urdupoetry.com/qateel22.html
हालाकि फिल्म में इस गज़ल में बदलाव कर के पेश किया गया है
Original गज़ल इस प्रकार है, और कतील शिफ़ाई द्वारा लिखी गई है
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं
बच निकलते हैं अगर आतिह-ए-सय्याद से हम
शोला-ए-आतिश-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं
ख़ुदनुमाई तो नहीं शेवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा
जिन को जलना हो वो आराम से जल जाते हैं
शमा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिये
हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं
जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ
जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं
रब्ता बाहम पे हमें क्या ना नहेंगे दुश्मन
आशना जब तेरे पैग़ाम से जल जाता है
--क़तील शिफ़ाई
Source : http://www.urdupoetry.com/qateel22.html
Saturday, June 6, 2009
तुम पूछो और मैं ना बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
तुम पूछो और मैं ना बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
किस को ख़बर थी सँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं
माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं
ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोँछ भी लो
जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं
मेरे ग़म-गीं होने पर अहबाब हैं यों हैरान क़तील
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं
--क़तील शिफाई
Source : http://www.urdupoetry.com/qateel18.html
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
किस को ख़बर थी सँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं
माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं
ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोँछ भी लो
जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं
मेरे ग़म-गीं होने पर अहबाब हैं यों हैरान क़तील
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं
--क़तील शिफाई
Source : http://www.urdupoetry.com/qateel18.html
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
मैं पयमबर तो नहीं मेरा कहा कैसे हो
दिल के हर ज़र्रे पे है नक़्श मुहब्बत उसकी
नूर आँखों का है आँखों से जुदा कैसे हो
जिस को जाना ही नहीं उसको ख़ुदा क्यूँ माने
और जिसे जान चुके हैं, वो ख़ुदा कैसे हो
उम्र सारी तो अँधेरे में नहीं कट सकती
हम अगर दिल ना जलायें तो ज़िआ कैसे हो
जिससे दो रोज़ भी खुल कर ना मुलाक़ात हुई
मुद्दतों बाद मिले भी तो गिला कैसे हो
किन निगाहों से उसे देख रहा हूँ शहज़द
मुझ को मालूम नहीं, उस को पता कैसे हो
--शहज़द अहमद
Source : http://www.urdupoetry.com/shehzad01.html
मैं पयमबर तो नहीं मेरा कहा कैसे हो
दिल के हर ज़र्रे पे है नक़्श मुहब्बत उसकी
नूर आँखों का है आँखों से जुदा कैसे हो
जिस को जाना ही नहीं उसको ख़ुदा क्यूँ माने
और जिसे जान चुके हैं, वो ख़ुदा कैसे हो
उम्र सारी तो अँधेरे में नहीं कट सकती
हम अगर दिल ना जलायें तो ज़िआ कैसे हो
जिससे दो रोज़ भी खुल कर ना मुलाक़ात हुई
मुद्दतों बाद मिले भी तो गिला कैसे हो
किन निगाहों से उसे देख रहा हूँ शहज़द
मुझ को मालूम नहीं, उस को पता कैसे हो
--शहज़द अहमद
Source : http://www.urdupoetry.com/shehzad01.html
Thursday, June 4, 2009
तन्हा तन्हा हम रो लेंगे महफ़िल महफ़िल गायेंगे
तन्हा तन्हा हम रो लेंगे महफ़िल महफ़िल गायेंगे
जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे
किन राहों से दूर है मंज़िल कौन सा रस्ता आसाँ है
हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हो मुमकिन है
हम तो उस दिन रो देंगे जिस दिन धोखा खायेंगे
शायर: निदा फ़ाज़ली
जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे
किन राहों से दूर है मंज़िल कौन सा रस्ता आसाँ है
हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हो मुमकिन है
हम तो उस दिन रो देंगे जिस दिन धोखा खायेंगे
शायर: निदा फ़ाज़ली
वो औरों को बताता है, जीने के तरीके
वो औरों को बताता है, जीने के तरीके
खुद मुट्ठी मे मेरी जान लिये बैठा है
--अज्ञात
खुद मुट्ठी मे मेरी जान लिये बैठा है
--अज्ञात
Tuesday, June 2, 2009
वो शक्स हंसता रहा जितनी देर मुझ से मिला
वो शक्स हंसता रहा जितनी देर मुझ से मिला
बस एक अश्क ने, सारी कहानियां रख दी
--ज्ञान प्रकाश विवेक
बस एक अश्क ने, सारी कहानियां रख दी
--ज्ञान प्रकाश विवेक
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