Wednesday, April 14, 2010

ताबीर जो मिल जाती, तो इक ख़्वाब बहुत था

ताबीर जो मिल जाती, तो इक ख़्वाब बहुत था
जो शख्स गँवा बैठे हैं नायाब बहुत था
मैं कैसे बचा लेता भला कश्ती-ए-दिल को
दरिया-ए-मोहब्बत में सैलाब बहुत था
--अज्ञात

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