तेरी महफ़िल से उठकर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री
मुख़ालिफ़ इक जहाँ था जाने बेचारों पे क्या गुज़री
सहर को रुख़्सत-ए-बीमार-ए-फ़ुर्क़त देखने वालो
किसी ने ये भी देखा रात भर तारों पे क्या गुज़री
सुना है ज़िन्दगी वीरानियों ने लूट् ली मिलकर्
न जाने ज़िन्दगी के नाज़बरदारों पे क्या गुज़री
हँसी आई तो है बेकैफ़ सी लेकिन ख़ुदा जाने
मुझे मसरूर पाकर मेरे ग़मख़्वारों पे क्या गुज़री
असीर-ए-ग़म तो जाँ देकर रिहाई पा गया लेकिन
किसी को क्या ख़बर ज़िन्दाँ की दिवारों पे क्या गुज़री
--शकील बँदायूनी
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