Wednesday, October 21, 2009

खुद को अपनी ही बुलंदी से गिरा कर देखो

खुद को अपनी ही बुलंदी से गिरा कर देखो
तुम ज़रा उसको ये आईना दिखा कर देखो

क्या दिया है तुम्हे इस शहर ने फूलों के एवज़
अब ज़रा संग भी हाथों में उठा कर देखो

शायद आ जाए कोई लौट के जाने वाला
इक दिया आस की चौखट पे जला कर देखो

बंद आँखों में थे खुश रंग से मौसम कितने
अब जो मंज़र है निगाहों को उठा कर देखो

राह के मोड़ में लगता है अकेला कोई
कोई तुम सा ना हो नज़दीक तो जा कर देखो

रुख़ हवाओं क्या समझना है तो एक बार अमीर
फिर कोई शम्मा सर-ए-राह जला कर देखो

--अमीर कज़लबाश

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