खुद को अपनी ही बुलंदी से गिरा कर देखो
तुम ज़रा उसको ये आईना दिखा कर देखो
क्या दिया है तुम्हे इस शहर ने फूलों के एवज़
अब ज़रा संग भी हाथों में उठा कर देखो
शायद आ जाए कोई लौट के जाने वाला
इक दिया आस की चौखट पे जला कर देखो
बंद आँखों में थे खुश रंग से मौसम कितने
अब जो मंज़र है निगाहों को उठा कर देखो
राह के मोड़ में लगता है अकेला कोई
कोई तुम सा ना हो नज़दीक तो जा कर देखो
रुख़ हवाओं क्या समझना है तो एक बार अमीर
फिर कोई शम्मा सर-ए-राह जला कर देखो
--अमीर कज़लबाश
No comments:
Post a Comment