Tuesday, December 6, 2011

इस दौर में किसी का मुक़द्दर नहीं कोई

माना के उन के नेज़ों पे अब सर नहीं कोई
क्या उन के आस्तीन में भी ख़ंजर नहीं कोई

मजबूरियों ने घर से निकलने ना दिया
दुनिया समझ रही है मेरा घर नहीं कोई

अब क्या करेंगे हम नये सूरज की रोशनी
जब देखने के वास्ते मंज़र नहीं कोई

दिल हो रहा है देर से ख़ामोश झील सा
क्या दोस्तों के हाथ में पत्थर नहीं कोई

क़िस्मत सभी की वक़्त के हाथों में रहती है
इस दौर में किसी का मुक़द्दर नहीं कोई

--सागर अजमी

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