Monday, June 24, 2019

रात गुज़री हमारी सितारों के साथ

गुमनाम, अनजाने तारों के साथ
रात गुज़री हमारी सितारों के साथ

याद है, तन्हाई है, ग़म है, शब् है
अच्छी कट रही है चारों के साथ

माना होते हैं कान पर ज़ुबां तो नहीं
कबतलक करें बात दीवारों के साथ

फिक जाते हैं बनके रद्दी दिन ढलते ही
हादसा ये रोज़ होता है अख़बारों के साथ

देख तन्हा चले आते हैं मिलने हमसे
दोस्ती सी हो गई है अशआरों के साथ

खेलने बाज़ी इश्क़ की हाथ में दिल लिए
तैयार शादीशुदा भी यहाँ कुंवारों के साथ

मझधार में ही मिलेगी मंज़िलें हमारी
कर लिया हैं किनारा, किनारों के साथ

लहरें ही करेंगीं पार नैया कश्ती की
रिश्ता तोड़ दिया है पतवारों के साथ

क्या सही है और क्या ग़लत ‘अमित’
एक द्वन्द्व सी छिड़ी है विचारों के साथ

--अमित हर्ष

Friday, June 21, 2019

ये बात उस तरह भी नहीं थी

गुंजाइश, कोई जगह भी नहीं थी
बिछड़ने की .. वजह भी नहीं थी

जाने कब कैसे गाँठ पड़ गई
कहीं कोई गिरह भी नहीं थी

जिस तरह समझी है तुमने 
ये बात उस तरह भी नहीं थी

वही दलील दिल, दर्द .. दूरी की
और तो कोई जिरह भी नहीं थी

शिक़स्त ही वाबस्ता थी दोनों तरफ 
मेरी हार उसकी फ़तह भी नहीं थी

डूबते गए सब शायरी में जिसमें
गहराई क्या सतह भी नहीं थी

चाँद-सितारों, नींद, ख्वाबों से सजा ली
जिस रात की कोई सुबह भी नहीं थी

पास-दूर, दोस्त-दुश्मन, अज़ीज़-गैर
वो हमारी किसी तरह भी नहीं थी

जायेगी देखना प्राण लेकर ही
वैसे पीड़ा इतनी असह भी नहीं थी

जो मायने निकाले गए मेरी शायरी के
उतनी समझ तो मुझे भी नहीं थी

बिखरे पड़े थे जहन में ‘अमित’ के
ख्यालों की कोई तह भी नहीं थी

--अमित हर्ष

Thursday, June 13, 2019

पर हमें प्यार अभी से ढेर सारा आ रहा है

ये दिल फिर तुम पर हमारा आ रहा है
एक मोदी ही नहीं जो दुबारा आ रहा है

आते आते आता है आदाब-ए-इश्क़ यूँ तो
पर हमें प्यार अभी से ढेर सारा आ रहा है

वो गली वो घर कब का छोड़ चुके हैं हम
जिस पते पर अब ख़त तुम्हारा आ रहा है

ख़ुद ब ख़ुद धुल गईं हैं आँखें अश्क से
अब साफ़ नज़र हर नज़ारा आ रहा है

अब चाँद से होंगे मुख़ातिब रात तमाम
सूरज तो सुबह का थका हारा आ रहा है

तुमने तो कहा था रखना अपना ‘अमित’
पर ख़्याल क्यूँ रह रहकर तुम्हारा आ रहा है

--अमित हर्ष