Tuesday, August 31, 2010

जाने क्यों शिक़स्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ


जाने क्यों शिक़स्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ
मैं क्या हूँ और क्या ख्वाब लिए फिरता हूँ

उसने एक बार किया था सवाल-ए-मोहब्बत
मैं हर लम्हा वफ़ा का जवाब लिए फिरता हूँ

उसने पूछा कब से नही सोए
मैं तब से रत-जगों का हिसाब लिए फिरता हूँ

उसकी ख्वाहिश थी के मेरी आँखों में पानी देखे
मैं उस वक़्त से आंसुओं का सैलाब लिए फिरता हूँ

अफ़सोस के फिर भी वो मेरी ना हुई "फ़राज़"
मैं जिस की आरज़ुओं की किताब लिए फिरता हूँ .

--अहमद फ़राज़

मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा

मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
--कृष्ण बिहारी नूर

Thursday, August 26, 2010

हर ज़ख्म नया पुराने ज़ख्मों की गिनती घटा देता है

हर ज़ख्म नया पुराने ज़ख्मों की गिनती घटा देता है
जाने मुझे कब रखना उनके सितम का हिसाब आएगा

--अज्ञात 

Wednesday, August 25, 2010

न हो उदास वो तुझसे अगर नहीं मिलता

न हो उदास वो तुझसे अगर नहीं मिलता
यहाँ किसी से कोई उम्र भर नहीं मिलता

हुआ है शहर तबाह तुझे खबर तो होगी
बहुत दिनों स मुझे अपना घर नहीं मिलता

हर इक मोड़ पर मिलते हैं सैंकड़ों चेहरे
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो मगर नहीं मिलता

--अज्ञात 

Tuesday, August 24, 2010

कुछ मेरी ही मिट्टी में बगावत भी बहुत थी

रास्ता भी कठिन था धूप में शिद्दत भी बहुत थी
साए से मगर उसको मोहब्बत भी बहुत थी
कुछ तेरे ही मौसम जो मुझे रास न आये
कुछ मेरी ही मिट्टी में बगावत भी बहुत थी
--अज्ञात 

तो जब अब टूट के रो नहीं पाते ...तो खुल के हस लिया करते हैं

जज्बातों के बादल अब गरजते नहीं बस. बरस लिया करते हैं
बिखरती ज़िन्दगी को नए हौंसले से हम कस लिया करते हैं
अश्क बहें चुके हैं इतने कि अब पथरा सी गयी हैं आँखें मेरी
तो जब अब टूट के रो नहीं पाते तो खुल के हस लिया करते हैं

--अभिषेक मिश्रा 

मुझे माँ का आँचल दे दो, मुझे उसी में सुकूं मिलता है

किसी को हाथों के हुनर, किसी को खून में जुनूं मिलता है
मुझे माँ का आँचल दे दो, मुझे उसी में सुकूं मिलता है
--अभिषेक मिश्रा

मुझे दिल-फेक आशिक न समझना

हमेशा के लिए दर्ज हो जाये..ज़ेहन में ऐसा तो कोई नाम नहीं आता
दिल किसी न किसी पे तो आएगा इसे और कोई काम नहीं आता
सुनो मुझे दिल-फेक आशिक न समझना तुम बीमार हूँ मैं
क्या करूँ दवा कुछ देर में बदल देता हूँ गर आराम नहीं आता
--अभिषेक मिश्रा 

हिन्दू-मुस्लिम सब रावन हो जाते हैं

एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं
मत पूछा कर किस कारन हो जाते हैं

हुस्न की दौलत मत बाँटा कर लोगों में
ऐसे वैसे लोग महाजन हो जाते हैं

ख़ुशहाली में सब होते हैं ऊँची ज़ात
भूखे-नंगे लोग हरिजन हो जाते हैं

राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिन्दू-मुस्लिम सब रावन हो जाते हैं

--अज्ञात 

Monday, August 23, 2010

क्या आदमी है

मां-बाप के लिये कभी , कुछ ना करे फिर भी ।
मां-बाप की आँखों का , तारा है आदमी ।।

बेटे की जिद के आगे , धृतराष्ट्र झुक गये ।
अपने ही अजीजों से , हारा है आदमी ॥

अपनों का कत्ल करके , बादशाह बन गया ।
मक्कारी में बुलंद सितारा है आदमी ॥

इक दूसरे के खून का , प्यासा कभी कभी ।
इक दूसरे का गम में सहारा है आदमी ॥

बरबाद कभी बाढ़ में , तूफान में कभी ।
कुदरत के आगे कितना , बेचारा है आदमी ॥

गरमी कभी ठंडक कभी ,और जलजला कभी ।
बरसात का , हालात का , मारा है आदमी ॥

फरमाइशें लम्बी हैं , पूरी नहीं होतीं ।
बीबी की नजर में तो , नकारा है आदमी ॥

उनकी नजर में वोट हैं , इंसान नही हैं ।
सियासत में आदमी का , चारा है आदमी ||

--अजय कुमार

Source : http://gatharee.blogspot.com/2010/08/blog-post.html

Sunday, August 22, 2010

इस शहर क लोगों से वफ़ा माँग रहा हूँ

इस शहर के लोगों से वफ़ा माँग रहा हूँ
और सोच मे डूबा हूँ के क्या माँग रहा हूँ

ये सब ने सज़ा रखा है जो अपनी जबीन पर
मैं दिल पे भी इक ऐसा निशाँ माँग रा हूँ

इस सूखे हुए खेत का जो रंग बदल दे
उस रहम की बारिश की दुआ माँग रा हूँ

पत्थर का तलबगार हूँ शीशे क नगर मे
क्या माँग रहा हूँ मैं कहाँ माँग रहा हूँ

तू बाँध के जुल्फों से मुझे दिल मे बिठा ले
मुजरिम हूँ तेरा तुझ से सज़ा माँग रहा हूँ

पहलू में तेरे सिर हो मेरा, मौत जब आए
बस इतना करम वक़्त-ए-नज़ा माँग रहा हूँ

मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मैं यहाँ किस लिए आया
मैं खुद से खुद अपना ही पता माँग रहा हूँ

दो लफ्ज़ मेरे नाम भी लिख दे कभी "असीम"
मैं तुझ से वफाओं का सिला माँग रहा हूँ

--असीम कौमी

चल के थमती नहीं अश्कों की रवानी असीम

चल के थमती नहीं अश्कों की रवानी असीम
जब भी दोहराता ही तू अपनी कहानी असीम

अब तो ईमान ही नहीं लफ्ज़-इ-वफ़ा पे अपना
ऐसे हालात सुने तेरी जुबानी असीम 

तू ये कहता था कभी इश्क न करना यारो
हाय क्यों हम ने तेरी बात न मानी असीम

जिसका तू हो गया, ता-ज़िन्दगी उस का ही रहा
इश्क करने में नहीं ही तेरा सानी असीम

किसको इस दौर में फुर्सत ही सुनने बैठे
ले के फिर बैठ गया बात पुरानी असीम

गम-ए-दौरां ही बहुत ही हमें तडपाने को
तू न अब और बढ़ा ये परेशानी असीम

तुझसे अच्छे भी बहुत और सुखनवर हैं यहाँ
जा कहीं और दिखा शोला बयानी असीम

--असीम कौमी 

ਓਹ੍ਖੇ ਵੇਲੇ ਇਕ ਇਕ ਕਰ ਕੇ ਸਾਰੇ ਤੁਰ ਗਏ

ਓਹ੍ਖੇ ਵੇਲੇ ਇਕ ਇਕ ਕਰ ਕੇ ਸਾਰੇ ਤੁਰ ਗਏ
ਪੱਲਾ ਤੂ ਵੀ ਛੁਡਾ ਲਿਯਾ ਤਾ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀ
ਮੈਂ ਰਹ ਗਯਾ ਦੁਨਿਯਾ ਵਿਚ ਇਕ ਮਜਾਕ ਬਣਕੇ
ਥੋੜਾ ਤੂ ਵ ਉੜਾ ਲਿਯਾ ਤਾ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀ

ओखे वेले इक इक कर के सारे तुर गए
पल्ला तू वी छुडा लिया ता कोई गल नहीं
मैं रह गया दुनिया विच इक मज़ाक बनके
थोडा तू वी उड़ा लिया ता कोई गल नहीं

--Unknown

उसकी कुरबत तो मुक़द्दर ही मिले या न मिले फ़राज़

उसकी कुरबत तो मुक़द्दर ही मिले या न मिले फ़राज़
उसकी यादों से भी हो जाती ही तसल्ली दिल को

--अहमद फ़राज़

Saturday, August 21, 2010

न मिला दिल का कदरदान इस ज़माने में

न मिला दिल का कदरदान इस ज़माने में
ये शीशा टूट गया देखने और दिखाने में
जी में आता है एक रोज़ शम्मा से पूछूं
मज़ा किस में है, जलने में या जलाने में?
--अज्ञात

Wednesday, August 18, 2010

पानी बदलो.....ज़रा हवा बदलो

पानी बदलो.....ज़रा हवा बदलो
ज़िंदगानी की..... ये फ़िज़ा बदलो

कह रही है ये....... दूर से मंज़िल;
काफिले वालो!... रहनुमा बदलो.

तुमको..... जीना है इस जहाँ में..... अगर;
अपने जीने का...... फलसफा बदलो.

आँधियाँ...... तो.... बदलने वाली नहीं;
तुम ही....... बुझता हुआ दिया बदलो

मुस्कुराहट ........मिला के थोड़ी सी
अपने अश्कों का....... ज़ायक़ा बदलो

सारी दुनिया..... बदल गयी कितनी
तुम भी .....राजेश!... अब ज़रा बदलो...

--राजेश रेडी

Thursday, August 12, 2010

हर तरफ छा गए पैगाम-ऐ-मोहब्बत बनकर...

हर तरफ छा गए पैगाम-ऐ-मोहब्बत बनकर...
मुझसे अच्छी रही किस्मत मेरे अफ़साने की...
--जिगर मोरादाबादी

Monday, August 9, 2010

हम से कुछ लोग मोहब्बत का चलन रखते हैं

हंस के मिलते हैं भले दिल में चुभन रखते हैं
हम से कुछ लोग मोहब्बत का चलन रखते हैं

पाँव थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं
[मुदावा=Cure]

ठीक हो जाओगे कहते हुए मुंह फेर लिया
हाय! क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं

दौर-ए-पस्ती है सबा! वरना तुझे बतलाते;
अपनी परवाज़ में हम कितने गगन रखते हैं
पस्ती=Lowest Point


हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे नसीम
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं

--मंगल नसीम

जैसे साँस लेते हुए महताब सी लड़की

जैसे साँस लेते हुए महताब सी लड़की
मेरे निगाह मे बसी है एक ख्वाब सी लड़की

मैं उससे फासला ना करता तो क्या करता
मैं हवओ सा पागल वो चराग़ सी लड़की

उसको सुना नही महसूस किया है मैने
हर सफे पे चुप है वो किताब सी लड़की

दरमिया हमारे हज़ार हिजाब हैं फिर भी
मुझे दिखाई देती है वो नक़ाब सी लड़की

मैं उसके सामने बेज़ुबान सा लगता हूँ
कई सवाल लिए है वो जवाब सी लड़की

--अज्ञात

कभी दीवार कभी दर की बात करता था

कभी दीवार कभी दर की बात करता था
वो अपने उजड़े हुए घर की बात करता था

मैं ज़िक्र जब कभी करता था आसमानों का;
वो अपने टूटे हुए पर की बात करता था

ना थी लकीर कोई उसके हाथ पर यारों
वो फिर भी अपने मुक़द्दर की बात करता था

जो एक हिरनी को जंगल में कर गया घायल
हर इक शजर उसी नश्तर की बात करता था

बस एक अश्क था मेरी उदास आँखों में
जो मुझसे सात समंदर की बात करता था

--ज्ञान प्रकाश विवेक