ज़मीन से पहले, खुले आसमान से पहले
न जाने क्या था यहाँ इस जहाँ से पहले
हमें भी, रोज ही मरना है, मौत आने तक
हमें भी ज़िंदगी देनी है, जान से पहले
ख़याल आते ही मंजिल से अपनी दूरी का
मैं थक सा जाता हूँ अक्सर थकान से पहले
जो मेरे दिल में है, उसके भी दिल में है, लेकिन
वो चाहता है, कहूँ मैं.... ज़बान से पहले
हमें पता है, हमारा जो हश्र होना है
नतीजा जानते हैं, इम्तिहान से पहले
--राजेश रेड्डी
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Saturday, January 19, 2013
नतीजा जानते हैं, इम्तिहान से पहले
फोन करने का सिलसिला रखना
अब न कोई मुगालता रखना
अपने कद का पता सदा रखना
घर सलामत रखे तुम्हारा जो
दोस्तों से वो फासला रखना
वक्त के साथ मत बदल जाना
प्यार के पेड़ को हरा रखना
दूर है जो करीब होगा वो
अपने होंटों पे बस दुआ रखना
मंजिलों पे अगर नज़र है तो
अपनी नज़रों में रास्ता रखना
मिलना जुलना तुषार मुश्किल हो
फोन करने का सिलसिला रखना
--नित्यानंद तुषार
ये अश्क कौन से ऊंचे घराने वाले थे
भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
हम आंसुओं की तरह मुस्कुराने वाले थे
हमीं ने कर दिया एलान-ए-गुमराही वरना
हमारे पीछे बहुत लोग आने वाले थे
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था, कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊंचे घराने वाले थे
उन्हें करीब न होने दिया कभी मैंने
जो दोस्ती में हदें भूल जाने वाले थे
मैं जिनको जान के पहचान भी नहीं सकता
कुछ ऐसे लोग, मेरा घर जलाने वाले थे
हमारा अलमिया ये था, की हमसफ़र भी हमें
वही मिले, जो बहुत याद आने वाले थे
[अलमिया=विडम्बना]
"वसीम" कैसी ताल्लुक की राह थी जिसमें
वही मिले जो बहुत दिल दुखाने वाले थे
--वसीम बरेलवी
के तू नहीं था, तेरे साथ एक दुनिया थी.
हुआ है तुझसे बिछडने के बाद अब मालूम
के तू नहीं था, तेरे साथ एक दुनिया थी..
--अज्ञात
चढ़दे सूरज ढल्दे वेखे
चढ़दे सूरज ढल्दे वेखे
बुझे दीवे बल्दे वेखे
हीरे दा कोई मुल्ल न तारे
खोटे सिक्के चलदे वेखे
जिन्हां दा न जग ते कोई
ओ वी पुत्तर पलदे वेखे
ओहदी रहमत दे नाल बंदे
पाणी उत्ते चलदे वेखे
लोकी कहंदे दाल नी गल्दी
मैं ता पत्थर गल्दे वेखे
जिन्हां क़दर न कीती यार दी बुल्ल्या
हथ खाली ओ मल्दे वेखे
--बुल्ले शाह
घर को हमें खुद ही आग लगाई थी
लोगों ने कुछ ऐसी बात बढ़ाई थी
तर्क-ए-मोहब्बत में भी अब रुसवाई थी
नाम हुआ बदनाम मोहल्ले वालो का
घर को हमने खुद ही आग लगाई थी
जिसके दिल में शौक़ था तुमने पर मरने का
उसने अपनी सूली आप उठाई थी
मंज़र घर के बाहर भी सूने थे
घर के अंदर भी दोहरी तन्हाई थी
"कैस" दुआ तो मांगी थी सहराओं ने
दरिया पर बारिश किसने बरसाई थी
--सईद कैस
चलो अब फ़ैसला कर लें
चलो अब फ़ैसला कर लें
के इस रास्ते पे कितनी दूर जाना है?
मुझे तुमसे बिछडना है?
तुम्हें मुझ को भूलना है?
बहुत दिन तक
कभी साहिल की भीगी रेत पेर यूँ ही
तुम्हारा नाम लिखा है
कभी खुश्बू पे अश्कों से
कोई पैगाम लिखा है
कभी तन्हाई की वहशत में
दीवारों से बातें कीं
कभी छत पर टहल कर
चाँद से, तारों से बातें कीं
मगर ये इश्क़ की दीवानगी ठहरी
कोई हासिल नही जिस से
नदी के दो किनारों की तरह
हमराह चलने से
अलग ताक़ों में रखे
दो चिरागों की तरह एक साथ जलने से
भला किया फ़ायदा होगा
ये एक ऐसी मोहब्बत है
क जिस में क़ुरबत ओ फुरक़त का
या सोद-ओ-ज़ियाँ का
कोई भी लम्हा नहीं आता
सो इस बे-रब्त क़िस्से का
कोई अंजाम हो जाए
चलो अब फ़ैसला कर लें
[Humaira Rahat]
भूलकर उसको और खफा क्या करना
दिल में कैद है, अब तुझको रिहा क्या करना
जिस्म से रूह को दानिस्ता जुदा क्या करना
[दानिस्ता=जान बूझ कर]
मैने जब याद किया याद वो आया मुझको
अब ज़्यादा उसे मजबूर-ए-वफा क्या करना
कुछ मिले या न मिले कूचा-ए-जानां है बहुत
हम फकीरों को कहीं और सदा क्या करना
मुझको जब तर्क-ए-मोहब्बत का कुछ एहसास न हो
तुझसे फिर तर्क-ए-मोहब्बत का गिला क्या करना
[तर्क-ए-मोहब्बत=breakup of relationship]
याद करने पे जो मुझसे नाराज़ है "खवार"
भूल कर उसको भला और खफा क्या करना
रहमन खवार
Friday, January 18, 2013
रस्म-ए-उल्फत सिखा गया कोई
रस्म-ए-उल्फत सिखा गया कोई
दिल की दुनिया पे छा गया कोई
ता-क़यामत किसी तरह न बुझे
आग ऐसी लगा गया कोई
दिल की दुनिया उजरी सी क्यों है
क्या यहाँ से चला गया कोई
वक्त-ए-रुखसत गले लगा कर "दाग"
हँसते हँसते रुला गया कोई
--दाग देहलवी
Monday, January 14, 2013
मुझ पर सितम ढा गये....
मुझ पर सितम ढा गये मेरी ग़ज़ल के शेर,
पढ़ पढ़ के खो रहे हैं वो किसी और के ख्याल में
--मरीज़
Saturday, January 12, 2013
वो मेरा है या नहीं, उलझा सवाल लगता है
कभी कभी ये सब अपना ख़याल लगता है
वो मेरा है या नहीं, उलझा सवाल लगता है
मैं वफ़ा कर के भी बदनामियों में हूँ
वो बेवफा हो कर भी बेमिसाल लगता है
--अज्ञात
Friday, January 11, 2013
Thursday, January 10, 2013
कोई गज़ल सुना कर क्या करना
कोई गज़ल सुना कर क्या करना
यूँ बात बढ़ा कर क्या करना
तुम मेरे थे, तुम मेरे हो
दुनिया को बता कर क्या करना
दिल का रिश्ता निभाओ तुम चाहत से
कोई रस्म निभा कर क्या करना
तुम खफ़ा भी अच्छे लगते हो
तुम्हें मना कर क्या करना
तेरे दर पे आकर बैठे हैं
अब घर भी जाकर क्या करना
दिन याद से अच्छा गुज़रेगा
फिर तुम्हें भुला कर क्या करना
--अज्ञात
Wednesday, January 9, 2013
पर मुस्कुराना ठीक नहीं, किसी ग़मज़दा के सामने
मेरे लफ्ज़ फ़ीके पड़ गए, तेरी एक अदा के सामने
मैं तुझको खुदा कह गया , अपने खुदा के सामने ..
तेरी लब पे ये हँसी सनम , हर घड़ी हर लम्हा रहे
पर मुस्कुराना ठीक नहीं, किसी ग़मज़दा के सामने
--अंकित राज
Monday, January 7, 2013
हाय वो वक़्त, वो बातें, वो ज़माना दिल का
उसने अंदाज़-ए-करम, उन पे वो आना दिल का
हाय वो वक़्त, वो बातें, वो ज़माना दिल का
न सुना उसने तवज्जो से फ़साना दिल का
उम्र गुजरी पर दर्द न जाना दिल का
दिल लगी, दिल की लगी बन के मिटा देती है
रोग दुश्मन को भी या रब न लगाना दिल का
वो भी अपने न हुए, दिल भी गया हाथों से
ऐसे आने से तो बेहतर है, न आना दिल का
उनकी महफ़िल में परवीन उनके तबस्सुम की अदा
हम देखते रह गए हाथ से जाना दिल का
--परवीन शकीर
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Sunday, January 6, 2013
इश्क ने यूं कर दिया बेगाना मुझे
इश्क ने यूं कर दिया बेगाना मुझे
अपना साया भी बड़ी मुश्किल से पहचाना मुझे
आपकी ये बेरुखी किस काम की रह जायेगी
आ गया जिस रोज अपने दिल को समझाना मुझे
--अज्ञात
Wednesday, January 2, 2013
कभी दिल ने तुझे गँवा दिया
कभी जिद में तेरे हो गए
कभी दिल ने तुझे गँवा दिया
इसी कशमकश में रहे सदा
तूने याद रखा या भुला दिया
कभी बेबसी में हंस दिए
कभी हंसी ने हम को रुला दिया
कभी फूल से रही दोस्ती
कभी हाथ काँटों से मिला दिया
कभी एक को अपना न कर सके
कभी खुद को सब का बना दिया
यूं ही दिन गुज़र गए प्यार के
कभी इक ख़्वाब खुद को बना दिया
जो ख्वाब उभरे इन आँखों में
उन्हें आँख में ही सुला दिया
--अज्ञात
मैं हाथ जोड़ता हूँ तो ये पांव पड़ जाता है
कमबख्त मानता ही नहीं दिल उसे भूलने को
मैं हाथ जोड़ता हूँ तो ये पांव पड़ जाता है
--अज्ञात
दरिया-ए-गम के पार उतर जाएँ हम तो क्या
जिंदा रहे तो क्या, मर जाएँ हम तो क्या
दुनिया में खामोशी से गुज़र जाएँ हम तो क्या
हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने
एक ख़्वाब है जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या
अब कौन मुन्तजिर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गयी है, लौट के घर जाएँ हम तो क्या
दिल की खलिश तो साथ रहेगी उम्र भर
दरिया-ए-गम के पार उतर जाएँ हम तो क्या
--अज्ञात
महज़ ये फर्क रह गया मोहब्बतों के दौर में
महज़ ये फर्क रह गया मोहब्बतों के दौर में
मैं उसका हो गया मगर, वो मेरा हो सका नहीं
--अज्ञात
मेरे सीने में जल रही है शाम
ये न समझो के ढल रही है शाम
अपने तेवर बदल रही है शाम
तुम नहीं आये और उस दिन से
मेरे सीने में जल रही है शाम
फैलती जा रही तारीकी
एक दुःख से निकल रही है शाम
ज़र्द सूरज छुपा रहा है बदन
लम्हा लम्हा पिघल रही है शाम
ओढ़ती जा रही है खामोशी
ऐसा लगता है ढल रही है शाम
उसके हमराह चल रहा है दिन
मेरे हमराह चल रही है शाम
--अज्ञात
इश्क शतरंज के खानों की तरह होता है
रौशनी देते गुमानो की तरह होता है
हुस्न भी आइना खानों की तरह होता है
हिजर वो मौसम-ए-वीरानी-ए-दिल है जिस्म में
आदमी उजड़े मकानों की तरह होता है
मात हो सकती है चालों में किसी भी लम्हे
इश्क शतरंज के खानों की तरह होता है
वो जो आता है तेरी याद में रुखसार तलक
अश्क तस्बीह के दानों की तरह होता है
तुझ को हाथों से गंवाया तो ये मालूम हुआ
प्यार भी झूठे फसानों कीई तरह होता है
बाज़ औकात मोहब्बत के दिनों में
एक लम्हा भी ज़मानों की तरह होता है
--अज्ञात
मैं भी तुम्हारी याद को दिल से भुला तो दूँ,
मैं भी तुम्हारी याद को दिल से भुला तो दूँ,
पर क्या करूँ के दिल की इजाज़त नहीं मुझे
--अज्ञात
ये दिल भुलाता नहीं है मोहब्बतें उसकी
ये दिल भुलाता नहीं है मोहब्बतें उसकी
पड़ी हुई थीं मुझे कितनी आदतें उसकी
ये मेरा सारा सफर उसकी खुश्बू में कटा
मुझे तो राह दिखाती थीं चाहतें उसकी
--अज्ञात