Monday, June 25, 2012

प्यास दरिया की निगाहों से छिपा रखी है

प्यास दरिया की निगाहों से छिपा रखी है
इक बादल से बड़ी आस लगा रखी है

तेरी आँखों की कशिश कैसे तुझे समझाऊं
इन चिरागों ने मेरी नींद उड़ा रखी है

तेरी बातों को छिपाना नहीं आता मुझको
तूने खुश्बू मेरे लहज़े में बसा रखी है

खुद को तन्हा ना समझो ए नये दीवानो
खाक हमने भी कई सहराओं की उड़ा रखी है

--इकबाल अशार

6 comments:

  1. प्यास दरिया की निगाहों से छिपा रखी है
    इक बादल से बड़ी आस लगा रखी है

    तेरी आँखों की कशिश कैसे तुझे समझाऊं
    इन चिरागों ने मेरी नींद उड़ा रखी है

    तेरी बातों को छिपाना नहीं आता मुझको
    तूने खुश्बू मेरे लहज़े में बसा रखी है

    खुद को तन्हा ना समझ लेना नये दीवानो
    खाक सहराओं की हमने भी उड़ा रखी है

    क्यूँ न आ जाए महकने का हुनर लफ़्ज़ों को
    तेरी चिटठी जो किताबों में छुपा रक्खी है

    --इकबाल अशार

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  2. ठहरी ठहरी सी तबियत में रवानी आई
    आज फिर याद मोहब्बत की कहानी आई

    आज फिर नींद को आँखों से बिछडते देखा
    आज फिर याद कोई चोट पुरानी आई

    मुद्दतों बाद चला उन पर हमारा जादू
    मुदत्तो बाद हमें बात बनानी आई

    मुद्दतो बाद पशेमा हुआ दरिया हमसे
    मुद्दतों बाद हमें प्यास छुपानी आई

    मुद्दतों बाद मयस्सर हुआ माँ का आँचल
    मुद्दतों बाद हमें नींद सुहानी आई

    इतनी आसानी से मिलती नहीं फन की दौलत
    ढल गयी उम्र तो गजलो पे जवानी आई ...इकबाल अशर

    इकबाल अशर ...

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  3. उसे बचाए कोई कैसे टूट जाने से
    वो दिल जो बाज़ न आये फरेब खाने से

    वो शखस एक ही लम्हे में टूट-फुट गया
    जिसे तराश रहा था में एक ज़माने से

    रुकी रुकी से नज़र आ रही है नब्ज़-इ-हयात
    ये कौन उठ के गया है मरे सरहाने से

    न जाने कितने चरागों को मिल गयी शोहरत
    एक आफ़ताब के बे-वक़्त डूब जाने से

    उदास छोड़ गया वो हर एक मौसम को
    गुलाब खिलते थे जिसके यूँ मुस्कुराने से.........इकबाल अशर

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