Thursday, December 29, 2011

वैसे उन्हें ‘इश्क’ से ‘परहेज़’ तो नहीं है

‘पैमाना-ए-मोहब्बत’ लबरेज तो नहीं है
पूछते है वो ..ये ‘नशा’ तेज तो नहीं है

‘झिझक’ .. तो कभी ‘एहतियात’ का हवाला
वैसे उन्हें ‘इश्क’ से ‘परहेज़’ तो नहीं है

--अमित हर्ष

Tuesday, December 27, 2011

उसने कहा क्या बात है, मैंने कहा कुछ भी नहीं

मेरी गज़ल का मुद्दा उसके सिवा कुछ भी नही
उसने कहा क्या बात है, मैंने कहा कुछ भी नहीं

जिस से न कहना था कभी, जिस से छुपाना था सभी
सब कुछ उसी से कह दिया, मुझसे कहा कुछ भी नहीं

चलना है राह-ए-जीस्त में अपने ही साथ एक-ओ-मुद्दत
कहने को है एक वाकया, और वाकया कुछ भी नहीं

अब के भी एक आंधी चली, अभी के भी सब कुछ हो गया
अब के भी सब बातें हुईं, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं

दिल को बचाने के लिए, जाँ को सिपर करते रहे
लोगों से आखिर क्या कहें, 'शैपर' बचा कुछ भी नहीं

--अज्ञात

बच्चों को झूठ बोलना हमने सिखा दिया

मैंने तो लौ बढ़ा के उजाला बढ़ा दिया
मेरे चराग ने मेरा घर ही जला दिया

अपने घरों में मसलाहतन झूठ बोल कर
बच्चों को झूठ बोलना हमने सिखा दिया

सच बात जानने की है फुरसत किसे यहाँ
जिसने भी जो सुना उसे आगे बढ़ा दिया

--अज़हर इनायती

Saturday, December 24, 2011

क्या लोगे इसका दाम ? बताना सही सही

कहना ग़लत ग़लत तो छुपाना सही सही
कासिद, कहा जो उसने, बताना सही सही
[कासिद=messenger]

दिल ले के मेरा हाथ में, कहते हैं मुझसे वो
क्या लोगे इसका दाम ? बताना सही सही

--अज्ञात

Saturday, December 17, 2011

यूं न मिल, मुझसे खफा हो जैसे

यूं न मिल, मुझसे खफा हो जैसे
साथ चल, मौज-ए-सबा हो जैसे

लोग यूं देख कर हंस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे

ऐसे अनजान बने बैठे हो
तुमको कुछ भी न पता हो जैसे

हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे

ज़िंदगी बीत रही है दानिश
इक बे-जुर्म सज़ा हो जैसे

--एहसान दानिश

खबर क्या थी के ये अंजाम होगा दिल लगाने का

कहीं दो दिल जो मिल जाते बिगड़ता क्या ज़माने का
खबर क्या थी के ये अंजाम होगा दिल लगाने का

--अज्ञात

इतना आसाँ नहीं होता किसी को अपना बना लेना

रूह तक नीलाम हो जाती है बाज़ार-ऐ-इश्क मे
इतना आसाँ नहीं होता किसी को अपना बना लेना

--अज्ञात

कभी-कभी ऐसे भी मेरी हार हुई है.......

रह कर खामोश, वो मेरी बात सुनता गया
कभी-कभी ऐसे भी मेरी हार हुई है.........!

--अज्ञात

रुकता तो सफ़र जाता, चलता तो उस से बिछड़ जाता

सामने मंजिल थी, पीछे उस की आवाज़;
रुकता तो सफ़र जाता, चलता तो उस से बिछड़ जाता
महखाना भी उस का था, मेह्कार भी उस का;
पीता तो ईमान जाता, न पीता तो सनम जाता

--अज्ञात

[mehkar=saaki]

Courtesy : HS Kukreja status message on facebook

Sunday, December 11, 2011

विसाल-ए-यार फक़त आरज़ू की बात नहीं

न आज लुत्फ़ कर इतना कि कल गुज़ार न सके,
वो रात जो की तेरे गेसुओं की रात नहीं
ये आरज़ू भीई बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फक़त आरज़ू की बात नहीं

--महबूब फैज़ साहब

लेकिन खुदा क़सम ,तुझे भूले नहीं है हम !!

न तेरी याद ,न तसव्वुर ,न तेरा ख़याल
लेकिन खुदा क़सम ,तुझे भूले नहीं है हम !!

--अज्ञात

मैं इस उम्मीद में डूबा कि तू बचा लेगा

मैं इस उम्मीद में डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा

ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊं उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वह जब चाहेगा बुला लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपने वह सब जला लेगा


--वसीम बरेलवी

A different version of this gazal is available at

http://aligarians.com/2006/02/main-is-ummiid-pe-duubaa-ke-tuu-bachaa-legaa/

Saturday, December 10, 2011

दिल है या के शीशा क्या है

दिल है या के शीशा क्या है
देखो तो ये टूटा क्या है

सारे तेरे दीवाने हैं
आखिर तुझ में ऐसा क्या है

बिन बोले सब कुछ कह देती
इन आँखों की भाषा क्या है

मैंने क्या समझाना चाहा
जाने तूने समझा क्या है

धीरे धीरे देखे जा तू
आगे आगे होता क्या है

विज्ञापन नंगी तसवीरें
अखबारों में छपता क्या है

किसको फुरसत है सुनने की
अपना दुखड़ा रोना क्या है

--अजय अज्ञात

ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे

ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे
मगर हम यहाँ से गुज़र जाएँगे

इसी खौफ से नींद आती नहीं
कि हम ख्वाब देखेंगे डर जाएँगे

डराता बहुत है समन्दर हमें
समन्दर में इक दिन उतर जाएँगे

जो रोकेगी रस्ता कभी मंज़िलें
घड़ी दो घड़ी को ठहर जाएँगे

कहाँ देर तक रात ठहरी कोई
किसी तरह ये दिन गुज़र जाएँगे

इसी खुशगुमानी ने तनहा किया
जिधर जाऊँगा, हमसफ़र जाएँगे

बदलता है सब कुछ तो 'आलम' कभी
ज़मीं पर सितारे बिखर जाएँगे

- आलम खुर्शीद

Wednesday, December 7, 2011

कहने को उस से इश्क की तफसीर है बहुत

कहने को उस से इश्क की तफसीर है बहुत
पढ़ ले तो सिर्फ आँख की तहरीर है बहुत
[Tafseer : Exposition, Key
Tehreer : Hand Writing]



तहलील कर के शिद्दत-ए-एहसास रंग में
बन जाए तो एक ही तस्वीर है बहुत
[Tehleel : To Mix in Some Thing]

दस्तक से दर का फासला है एतमाद का
पर लौट जाने को यही ताखीर है बहुत
[Aitamaad : Faith]
[Taakheer : Late]


बैठा रहा वो पास तो मैं सोचती रही
खामोशियों की अपनी भी तासीर है बहुत
[Taseer : Effect]

तामीर कर रहा है मोहब्बत का वो हिसार
मेरे लिए ख़ुलूस की ज़ंजीर है बहुत
[Tameer : Building
Hisaar : Fort, Enclosure, Fence, Grasp, Hold
Khuloos : Sincerity]


मैं उस से अपनी बात कहूँ शेर लिख सकूं
अलफ़ाज़ दे वो जिन में के तासीर है बहुत

--फातिमा हसन

इनकार की सी लज़्ज़त इकरार में कहाँ

इनकार की सी लज़्ज़त इकरार में कहाँ
बढ़ता है इश्क ग़ालिब उनकी नहीं नहीं से

--मिर्ज़ा ग़ालिब


दिल वो पागल के कोई बात न माने जैसे

जागती रात के होंटों पे फ़साने जैसे
एक पल में सिमट आयें हों ज़माने जैसे

अक्ल कहती है भुला दो जो नहीं मिल पाया
दिल वो पागल के कोई बात न माने जैसे

रास्ते में वही मंज़र हैं पुराने अब तक
बस कमी है तो नहीं लोग पुराने जैसे

आइना देख के एहसास यही होता है
ले गया वक़्त हो उम्रों के खजाने जैसे

रात की आँख से टपका हुआ आंसू वसी
मखमली घास पे मोती के हों दाने जैसे

--वसी शाह

Tuesday, December 6, 2011

मुझ को हर शख़्स ने दिल अपना दिखाना चाहा

हाल-ए-दिल मैं ने जो दुनिया को सुनाना चाहा
मुझ को हर शख़्स ने दिल अपना दिखाना चाहा

[shaKhs = person]

अपनी तस्वीर बनाने के लिये दुनिया में
मैं ने हर रंग पे इक रंग चढ़ाना चाहा

ख़ाक-ए-दिल जौहर-ए-आईना के काम आ ही गई
लाख दुनिया ने निगाहों से गिराना चाहा

शोला-ए-बर्क़ से गुलशन को बचाने के लिये
मैं ने हर आग को सीने में छुपाना चाहा

[sholaa-e-barq = spark of lightning; gulashan = garden]

अपने ऐबों को छुपाने के लिये दुनिया में
मैंने हर शख़्स पे इल्ज़ाम लगाना चाहा

[aib = vice/fault; ilzaam = allegation/accusation]

ग़ैरत-ए-मौज उसे फेंक गई साहिल पर
डूबने वाले ने जब शोर मचाना चाहा

--करार नूरी

इस दौर में किसी का मुक़द्दर नहीं कोई

माना के उन के नेज़ों पे अब सर नहीं कोई
क्या उन के आस्तीन में भी ख़ंजर नहीं कोई

मजबूरियों ने घर से निकलने ना दिया
दुनिया समझ रही है मेरा घर नहीं कोई

अब क्या करेंगे हम नये सूरज की रोशनी
जब देखने के वास्ते मंज़र नहीं कोई

दिल हो रहा है देर से ख़ामोश झील सा
क्या दोस्तों के हाथ में पत्थर नहीं कोई

क़िस्मत सभी की वक़्त के हाथों में रहती है
इस दौर में किसी का मुक़द्दर नहीं कोई

--सागर अजमी

Friday, December 2, 2011

सौ बार चमन महका, सौ बार बहार आई

सौ बार चमन महका, सौ बार बहार आई
दुनिया की वही रौनक, दिल की वही तनहाई

--अज्ञात

Thursday, December 1, 2011

मेरी सुर्ख सुर्ख आँखें मुझे बता रही हैं

मेरी सुर्ख सुर्ख आँखें मुझे बता रही हैं
फिर सुबह कर दी मैंने उसे याद करते करते !!

--अज्ञात

क्या खूब मिली थी उनसे मेरी नज़र किसी रोज

तय करना था एक लंबा सफर पर कोई हमसफ़र नहीं था
मुझपे आते जाते मौसमों का कोई असर नहीं था
क्या खूब मिली थी उनसे मेरी नज़र किसी रोज
अब न मिले वो एक पल भी तो हमको सबर नहीं था

--अज्ञात