वो तीर छोड़ा हुआ उसी कमान का था
अगरचे हाथ किसी और मेहरबान का था
गुज़र रहा था वो लम्हा जो दरमियान का था
मगर ये वक़्त बड़े सख्त इम्तेहान का था
पता नहीं की जुदा हो के कैसे जिंदा रहे
हमारा उसका ताल्लुक तो जिस्म-ओ-जान का था
हवा तो चलती ही रहती थी इस समंदर में
कसूर कोई अगर था तो बादवान का था
वही कहानी कभी झूठ थी, कभी सच्ची थी
ज़रा सा फर्क अगर था, तो बस बयान का था
क़दम क़दम पे नये मंज़रों की हैरत थी
तेरी गली का सफर था, कि इक जहान का था
हम अपने नाम के हिस्से को ढूँढ़ते भी कहाँ
ज़मीन के पास तो जो कुछ था, आसमान का था
कहीं ज़मीन पे सानी नहीं मिला उसका
वो शक्स जैसे किसी और आसमान का था
--मंज़ूर हाशमी
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Sunday, June 27, 2010
वो तीर छोड़ा हुआ उसी कमान का था
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बहोत ही अच्छा लिखा है आपने. शुभकामनाएँ
ReplyDeleteभारत प्रश्न मंच पर आपका स्वागत है. mishrasarovar.blogspot.com
वाह क्या बात कही है।
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