Thursday, June 10, 2010

हसरत भरी निगाहों को आराम तक नही

हसरत भरी निगाहों को आराम तक नही
पलटा वो ज़िंदगानी की फिर शाम तक नही

जिसकी तलब मैने ज़िंदगी अपनी गुज़ार दी
उस बेवफा के लब पे मेरा नाम तक नही

जो कह गए थे शाम को बैठेंगे आज फिर
कुछ साल हो गए, कोई पैगाम तक नही

मैं दफ़न हूँ तेरे हिजर की एक ऐसी क़ब्र मे
पत्थर पे जिस के आज कोई नाम तक नही

बे-इख्तियार उठते हैं मेरे क़दम उधर
हालांके उस गली में मुझे काम तक नही

उसने पूरे शहर मे चर्चा बहुत किया
मेरे लबों पे एक भी इल्ज़ाम तक नही

--अज्ञात

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