Thursday, February 4, 2010

बहुत हुआ

उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये किस्सा पुराना बहुत हुआ

ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़
ए मर्ग-ए-नगाहाँ तेरा आना बहुत हुआ

हम खुल्द से निकल तो गये हैं पर ए खुदा
इतने से वाक्ये का फ़साना बहुत हुआ

अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी
उस से ज़रा राब्त बढ़ाना बहुत हुआ

अब क्यों न ज़िन्दगी पे मोहब्बत को वार दें
इस आशिकी में जान से जाना बहुत हुआ

अब तक दिल का दिल से तारुफ़ न हो सका
माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ

क्या क्या न हम खराब हुए हैं मगर ये दिल
ए याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ

कहता था नसीहों से मेरे मुंह न आइयो
फिर क्या था एक हु का आना बहुत हुआ

लो फिर तेरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
अहमद फ़राज़ तुझ से कहा न बहुत हुआ

--अहमद फराज़

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