एक दूसरे से सब यहाँ बेज़ार हो गए
रिश्तों के जितने फूल थे सब खार हो गए
निकले हिन् फिर बचाने वो मज़हब की आबरू
फिर एक नए फसाद के आसार हो गए
कल तक जो घर थे, गाँव थे, शहर थे
सब देखते ही देखते बाज़ार हो गए
बेचा जिन्होंने अपना ज़मीर इस जहाँ में वो
दुनिया कि हर खुशी के खरीददार हो गए
मंजिल हमारे सामने थे मुन्तज़र मगर
हम खुद ही अपनी राह में दीवार हो गए
--राजेश रेड्डी
No comments:
Post a Comment