Wednesday, February 17, 2010

एक दूसरे से सब यहाँ बेज़ार हो गए

एक दूसरे से सब यहाँ बेज़ार हो गए
रिश्तों के जितने फूल थे सब खार हो गए

निकले हिन् फिर बचाने वो मज़हब की आबरू
फिर एक नए फसाद के आसार हो गए

कल तक जो घर थे, गाँव थे, शहर थे
सब देखते ही देखते बाज़ार हो गए

बेचा जिन्होंने अपना ज़मीर इस जहाँ में वो
दुनिया कि हर खुशी के खरीददार हो गए

मंजिल हमारे सामने थे मुन्तज़र मगर
हम खुद ही अपनी राह में दीवार हो गए

--राजेश रेड्डी

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