Tuesday, January 5, 2010

मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

सोचा नहीं अच्छा बुरा देखाअ सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं

देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मूँह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं

अहसास की ख़ुश्बू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा, घर में रहा कुछ भी नहीं

--बशीर बद्र


Source : http://www.urdupoetry.com/bashir03.html

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