Sunday, October 16, 2011

अजब नहीं कि अगर याद भी ना आऊँ उसे

करूँ ना याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुन_गुनाऊँ उसे

वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

[ख़ार=thorn, कांटे]

ये लोग तज़करे करते हैं अपने लोगों से
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे

[तज़करे=narration/descrption]

मगर वो ज़ूद_फ़रामोश ज़ूद रन्ज भी है
के रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊं उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे

जो हम_सफ़र सर-ए-मन्ज़िल बिछड़ रहा है 'फराज़'
अजब नहीं कि अगर याद भी ना आऊँ उसे

--अहमद फ़राज़

Source : http://urdupoetry.com/faraz29.html

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