Monday, August 31, 2009

हमें तो अब भी वो गुज़रा ज़माना याद आता है

हमें तो अब भी वो गुज़रा ज़माना याद आता है
तुम्हें भी क्या कभी कोई दीवाना याद आता है

हवायें तेज़ थी, बारिश भी थी, तूफान भी था लेकिन
ऐसे में तेरा वादा निभाना याद आता है

गुज़र चुकी थी बहुत रात बातों बातों में
फिर उठ के तेरा वो शम्मा बुझाना याद आता है

घटायें कितनी देखी हैं पर मुझे 'असरार'
किसी का रुख पे ज़ुल्फें गिराना याद आता है

--असरार अनसारी

Sunday, August 30, 2009

न दिल, न मोहब्बत, न अफसाना देखा

न दिल, न मोहब्बत, न अफसाना देखा
जिस भी हाथ में देखा खाली पैमाना देखा
कपड़े बदलने से दिल नहीं बदलते ए-दोस्त
तेरे दामन में हमने वो ही दाग पुराना देखा
--अज्ञात

यादों की जड़ें

यादों की जड़ें फूट ही पड़ती हैं कहीं से फराज़
दिल अगर सूख भी जाये, तो बंजर नही होता
--अहमद फ़राज़

उसने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुखन कहे

उसने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुखन कहे
मैं ने तो उसके पांव में सारा कलाम रख दिया
--अहमद फराज़


सुखन=शेर/गज़ल/poem

मेरे ही हाथों पे लिखी है तक़दीर मेरी फ़राज़

मेरे ही हाथों पे लिखी है तक़दीर मेरी फ़राज़
और मेरी ही तक़दीर पे मेरा बस नही चलता
--अहमद फराज़

अबकी बार तुम मिले तो पलकें बन्द ही रखेंगें

अबकी बार तुम मिले तो पलकें बन्द ही रखेंगें
ये बातूनी आंखें मुंह को कुछ बोलने नहीं देती
--द्वारिका (DVM13)

Saturday, August 29, 2009

ग़ज़ल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी

ग़ज़ल का इतिहास - / - Gazal's History
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1. फ़ारसी से ग़ज़ल उर्दू में आई। उर्दू का पहला शायर जिसका काव्य संकलन(दीवान)प्रकाशित हुआ है, वह हैं मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह। आप दकन के बादशाह थे और आपकी शायरी में फ़ारसी के अलावा उर्दू और उस वक्त की दकनी बोली शामिल थी।

पिया बाज प्याला पिया जाये ना।
पिया बाज इक तिल जिया जाये ना।।

क़ुली क़ुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही,बह्‌री और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती हुई ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी(शब्दों की) छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फ़ारसी के बराबर ला खड़ा किया। दकन के लगभग तमाम शायरों की ग़ज़लें बिल्कुल सीधी साधी और सुगम शब्दों के माध्यम से हुआ करती थीं।

2. वली के साथ साथ उर्दू शायरी दकन से उत्तर की ओर आई। यहां से उर्दू शायरी का पहला दौर शुरू होता है। उस वक्त के शायर आबरू, नाजी, मज्‍़नून, हातिम, इत्यादि थे। इन सब में वली की शायरी सबसे अच्छी थी। इस दौर में उर्दू शायरी में दकनी शब्द काफी़ हद तक हो गये थे। इसी दौर के आख़िर में आने वाले शायरों के नाम हैं-मज़हर जाने-जानाँ, सादुल्ला ‘गुलशन’ ,ख़ान’आरजू’ इत्यादि। यक़ीनन इन सब ने मिलकर उर्दू शायरी को अच्छी तरक्क़ी दी। मिसाल के तौर पर उनके कुछ शेर :-

ये हसरत रह गई कि किस किस मजे़ से ज़िंदगी करते।
अगर होता चमन अपना, गुल अपना,बागबाँ अपना।।-मज़हर जाने-जानाँ

खुदा के वास्ते इसको न टोको।
यही एक शहर में क़ातिल रहा है।।-मज़हर जाने-जानाँ

जान,तुझपर कुछ एतबार नहीं ।
कि जिंदगानी का क्या भरोसा है।।-खान आरजू

ग़ज़ल का दूसरा दोर - / - gazal ka dusra dor

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दूसरा दौर-

इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं’'गालिब़' , मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता है। इस दौर के अन्य शायरों में मीर’दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी़ मशहूर था। इस जमाने में उच्च कोटि की ग़ज़लें लिखीं गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाजुकी को एक हद तक संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।

देखे तो दिल कि जाँ से उठता है।
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है।।

दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ़ के काबिल थी।

नाजु़की उसके लब की क्या कहिये।
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है।।

‘मीर’ इन नीमबाज़ आखों में।
सारी मस्ती शराब की सी है।।

इस दौर की शायरी में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता है।

वक्‍़त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग़ टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में ,जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगहों को छोड़कर, इकट्ठा होने लगे। इसी समय ‘मुसहफ़ी’ और ‘इंशा’ की आपसी नोकझोंक के कारण उर्दू शायरी की गंभीरता कम हुई। ‘जुर्रअत’ ने बिल्कुल हलकी-फुलकी और कभी-कभी सस्ती और अश्लील शायरी की। इस ज़माने की शायरी का अंदाज़ा आप इन अशआर से लगा सकते हैं।

किसी के मरहमे आबे रवाँ की याद आई।
हुबाब के जो बराबर कभी हुबाब आया।।

टुपट्टे को आगे से दुहरा न ओढ़ो।
नुमुदार चीजें छुपाने से हासिल।।

लेकिन यह तो हुई ‘इंशा’, ‘मुसहफ़ी’ और ‘जुर्रअत’ की बात। जहां तक लखनवी अंदाज़ का सवाल है ,उसकी बुनियाद ‘नासिख़’ और ‘आतिश’ ने डाली। दुर्भाग्यवश इन दोनों की शायरी में हृदय और मन की कोमल तरल भावनाओं का बयान कम है और शारीरिक उतार-चढ़ाव,बनाव-सिंगार और लिबास का वर्णन ज्‍़यादा है।

Urdu Shayari ke Do Andaaj
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1 . उर्दू शायरी अब दो अंदाज़ों में बंट गयी। ‘लखनवी’ और’देहलवी’। दिल्ली वाले जहां आशिक़ और माशूक़ के हृदय की गहराइयों में झांक रहे थे ,वहां लखनऊ वाले महबूब के जिस्म,उसकी खूबसूरती,बनाव-सिंगार और नाज़ो-अदा पर फ़िदा हो रहे थे। दिल्ली और लखनऊ की शायरी जब इस मोड़ पर थी .उसी समय दिल्ली में ‘जौ़क़’, ‘ग़ालिब’ और ‘मोमिन’ उर्दू ग़ज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाने में जुटे हुये थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘गा़लिब’ ने ग़ज़ल में दार्शनिकता भरी ,’मोमिन’ ने कोमलता पैदा की और ‘जौ़क़’ ने भाषा को साफ़-सुथरा,सुगम और आसान बनाया। लीजिये इन शायरों के कुछ शेर पढ़िये-

ग़मे हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज।
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।।-गालिब़

तुम मेरे पास हो गोया।
जब कोई दूसरा नहीं होता।।- मोमिन

लाई हयात आये,कज़ा ले चली,चले।
अपनी खु़शी न आये, न अपनी खुशी चले।।-जौ़क़

इन तीनों महान शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसनें जिंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लड़खड़ाती ज़बान से कहा था-

कितना बदनसीन ‘ज़फ़र’ दफ्‍़न के लिये।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।।-बहादुरशाहज़फ़र

1857 में दिल्ली उजड़ी,लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुये। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड़कर रामपुर,भोपाल, मटियाब्रिज और हैदराबाद पहुंच वहांके दरबारों की शोभा बढ़ाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर’दा़ग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं।

यह वक्‍़त अंग्रेजी हुकूमत की गिरफ्‍़त का होते हुये भी भारतीय इंसान आजा़दी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बगा़वत भी कर बैठता था। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आजा़दी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी कौ़मी भावनाओं पर कवितायें लिखीं गईं और अंग्रेजी हुकूमत एवं उसकी संस्कृति पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंग्यात्मक शेर भी लिखे जाने लगे।

Gazal Me Desh- Bhakti or Uska Dagmagana
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अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र ख़ुदा या माशूक़ न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आजा़दी हो गया। ‘हाली’,'अकबर इलाहाबादी’ ,’चकबिस्त’, और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं।

सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी ,ये गुलिस्ताँ हमारा।।

‘इक़बाल’ की यह नज्‍़म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी है। ‘अकबर’ के व्यंग्य भी इतने ही मशहूर हैं।लेकिन एक बात का उल्लेख यहाँ पर करना यहां जरूरी है कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज्‍़में अथवा कवियायें ज्यादा लिखीं।और यथार्थ में ग़ज़ल को पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो समझा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही है।

लेकिन ग़ज़ल की खु़शक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’,जिगर’ ‘फा़नी’,'असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला ,उसे नयी और अच्छी दिशा दिखलाई ,दुबारा जिंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया।’जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से उतार निकालकर चलती-फिरती दुनिया में ला खड़ा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ़ महबूब था,कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना ही साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा ,प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की।

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये।
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है।।

-- हसरत --

ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई। इन शायरों के बाद नई नस्ल के शायरों में फ़िराक़, नुशूर, जज्‍़बी,जाँनिशार अख्‍़तर, शकील, मजरूह,साहिर,हफ़ीज़ होशियारपुरी,क़तील शिफ़ाई,इब्ने इंशा, फ़ैज़ अहमद’फ़ैज़’,और सेवकों का जिक्र किया जा सकता है। ‘हफ़ीज जालंधरी’ और ‘जोश मलीहाबादी’ के उल्लेख के बगैर उर्दू शायरी का इतिहास अधूरा रहेगा। यह सच है कि इन दोनों शायरों ने कवितायें(नज्‍़में) ज्‍़यादा लिखीं और ग़ज़लें कम। लेकिन इनका लिखा हुआ काव्य संग्रह उच्च कोटि का है। ‘जोश’ की एक नज्‍़म, जो दूसरे महायुद्द के वक्त लिखी गई थी और जिसमें हिटलर की तारीफ़ की गई थी,अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा उनको जेल भिजवाने का कारण बनी।


फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ की शायरी का जिक्र अलग से करना अनिवार्य है।यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में रा जनीति लाई और साथ साथ जिंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हकी़क़तों को बड़ी खू़बी और सफा़ई से पेश किया।

मता-ए- लौहो क़लम छिन गई तो क्या ग़म है।
कि खू़ने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने।।

जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फ़ैज़’ के आजा़द क़लम का नमूना ऊपर लिखी बात को पूर्णत: सिद्ध करता है


Aazaad Gazal
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ग़ज़ल लेखन में एक और नया प्रयोग शुरू किया गया है जिसका उल्लेख यहाँ करना अनुचित न होगा। इन प्रायोगिक ग़ज़लों में शेर की दोनों पंक्तियों से मीटर की पाबंदी हटा दी गई है,लेकिन रदीफ़ और क़ाफिये की पाबंदी रखी गई है। इन ग़ज़लों को "‘- आजा़द ग़ज़ल -’" कहा जाता है।

ग़ज़ल का इतिहास रोज़ लिखा जा रहा है। नये शायर ग़ज़ल के क्षितिज पर रोज़ उभर रहे हैं ,और उभरते रहेंगे। अपने फ़न से और अपनी शायरी से ये कलाकार ग़ज़ल की दुनिया को रोशन कर रहे हैं।

कुछ शायरों ने ग़ज़ल को एक नया मोड़ दिया है। इन ग़ज़लों में अलामती रुझान यानी सांकेतिक प्रवृत्ति प्रमुख रूप से होता है। उदाहरण के लिये निम्न अशआर पढ़िये-

वो तो बता रहा था बहोत दूर का सफ़र।
जंजीर खींचकर जो मुशाफ़िर उतर गया।।
साहिल की सारी रेत इमारत में लग गई।
अब लोग कैसे अपने घरौंदे बनायेंगे।।

इन शायरों में कुछ शायरों के नाम हैं- कुंवर महिंदर सिंह बेदी, ज़िया फ़तेहबादी, प्रेम वारबरटनी,मज़हर इमाम, अहमद फ़राज़,निदा फ़ाज़ली,सुदर्शन फ़ाकिर, नासिर काज़मी, परवीन शाकिर, अब्दुल हमीद अदम,सूफी़ तबस्सुम, ज़रीना सानी, मिद्‌हतुल अख्‍़तर, अब्दुल रहीम नश्तर, प्रो.युनुस, ख़लिश क़ादरी, ज़फ़र कलीम,शाहिद कबीर, प्रो. मंशा, जलील साज़, शहरयार, बशीर बद्र, शाज तम्कनत, वहीद अख्‍़तर, महबूब राही, इफ्‍़ितख़ार इमाम सिद्धीकी़,शबाब ललित, कृष्ण मोहन, याद देहलवी,ज़हीर गा़ज़ीपुरी, यूसुफ़ जमाल, राज नारायण राज़,गोपाल मित्तल,उमर अंशारी,करामत अली करामत, उनवान चिश्ती, मलिक़ जा़दा मंज़ूर,ग़ुलाम रब्बानी,ताबाँ,जज्‍़बी इत्यादि।

इन ग़ज़लों को ‘आजा़द ग़ज़ल’ कहा जाता है।

फूल हो ,ज़हर में डूबा हुआ पत्थर न सही।
दोस्तों मेरा भी कुछ हक़ तो है,
छुपकर सहीम खुलकर न सही।
यूं भी जीवन जी लेते हैं जीने वाले।
कोई तस्वीर सही,आपका पैकर न सही।

-मज़हर इमाम

शक्‍ल धुंधली सी है,शीशे में निखर जायेगी।
मेरे एहसास की गर्मी से संवर जायेगी।।

आज वो काली घटाओं पे हैं नाजाँ लेकिन।
चांद सी रोशनी बालों में उतर जायेगी।।

-ज़रीना सानी

फ़िलहाल यह ग़ज़लें प्रारंभिक अवस्था में हैं। ग़ज़ल के रसिया और ग़ज़ल गायक इन ग़ज़लों को पसंद करते हैं या नहीं यह भविष्य ही बतायेगा।निम्नलिखित शायर’ आजाद़ ग़ज़ल’के समर्थक हैं।ज़हीर ग़ाजीपुरी, मज़हर इमाम, युसुफ़ जमाल, डा.ज़रीना सानी,अलीम सबा नवीदी,मनाज़िर आशिक़ इत्यादि।

संगीत को त्रिवेणी संगम कहा जाता है। इस संगम में तीन बातें अनिवार्य हैं,शब्द,तर्ज़ और आवाज़। ग़ज़ल की लोकप्रियता इस बात की पुष्टि करती है कि अच्छे शब्द के साथ अच्छी तर्ज़ और मधुर आवाज़ अत्यंत अनिवार्य है। इसीलिये यह निसंकोच कहा जा सकता है कि ग़ज़ल को दिलकश संगीत में ढालने वाले संगीतकार और उसे बेहतरीन ढंग से रसिकों के आगे पेश करने वाले कलाकार गायक अगर नहीं होते तो ग़ज़ल यकीनन किताबों में ही बंद रह कर घुट जाती,सिमट जाती।

Aazaad Gazal ..

Source : http://www.orkut.co.in/Main#CommMsgs.aspx?cmm=92841259&tid=5375208883168993532&na=4

समझ जाता हूँ देर से ही सही, दांव पेच उसके

कुछ देर से सही, मगर समझ लेता हूँ सब दांव पेच उसके
वो बाज़ी जीत लेता है मेरे चालाक होने तक
--अज्ञात

Friday, August 28, 2009

तुझे खबर है तुझे सोचने की खातिर हम

तुझे खबर है तुझे सोचने की खातिर हम
बहुत से काम मुकद्दर पे टाल रखते हैं

कोई भी फ़ैसला हम सोच कर नहीं करते
तुम्हारे नाम का सिक्का उछाल रखते हैं

तुम्हारे बाद ये आदत सी हो गयी अपनी
बिखरते सूखते पत्ते सम्भाल रखते हैं

खुशी सी मिल जाती है खुद को अज़ीयतें देकर
सो जान बूझ के दिल को निढाल रखते हैं

कभी कभी वो मुझे हंस के देख लेते हैं
कभी कभी मेरा बेहद खयाल रखते हैं

तुम्हारे हिज्र में ये हाल हो गया है अपना
किसी का खत हो उसे भी सम्भाल रखते हैं

खुशी मिले तो तेरे बाद खुश नहीं होते
हम अपनी आंख में हर दम मलाल रखते हैं

ज़माने भर से बचा कर वो अपने आंचल में
मेरे वजूद के टुकड़े सम्भाल रखते हैं

कुछ इस लिये भी तो बे-हाल हो गये हम लोग
तुम्हारी याद का बेहद खयाल रखते हैं

--अज्ञात

काश के उसे चाहने का अरमान न होता

काश के उसे चाहने का अरमान न होता
मैं होश में होते हुए अनजान न होता
ये प्यार ना होता किसी पत्थर दिल से हमें
या कोई पत्थर दिल इन्सान ना होता
--अज्ञात

Thursday, August 27, 2009

खाली खाली न यूँ दिल का मकां रह जाये

खाली खाली न यूँ दिल का मकां रह जाये
तुम गम-ए-यार से कह दो, कि यहां रह जाये

रूह भटकेगी तो बस तेरे लिये भटकेगी
जिस्म का क्या भरोसा ये कहां रह जाये

एक मुद्दत से मेरे दिल में वो यूँ रहता है
जैसे कमरे में चरागों का धुआं रह जाये

इस लिये ज़ख्मों को मरहम से नहीं मिलवाया
कुछ ना कुछ आपकी कुरबत का निशां रह जाये

--मुनव्वर राणा

Sunday, August 23, 2009

लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

धरती उत्ते स्वर्ग नहीं थां लभणी,
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी
रिश्ते नाते होर बथेरे दुनिया विच
इस रिश्ते विच ही साडी दुनिया लभणी

मां है रब दा रूप सयाणे कह गये ने
पर उस रब नूं पूजन वाले थोड़े रह गये ने
धुर दरगाहे उसनूं नहीं जे थां लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

जीवन धुप ते मां परछावां हुंदी ए
हर सुख दुख दा ए सिरनावां हुंदी ए
मा दी हिक दी निघ वी किधरे ना लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

कर्ज़ा इस दा ज़िन्दगी भर नहीं ला सकदे
पा लो जिन्ना प्यार एस तो पा सकदे
गलती कर के जिस तो सदा खिमां लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

जद तू अपणे सीने धस लवौंदी सें
मिठियां लोरियां गा के जद सवौंदी सें
माख्यों मिठी किधरे होर ज़ुबां लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

तेरी पक्की जद वी खाण नूँ जी करदा
नस के तेरे कोल औण नूं जी करदा
ना मूंगी, ना मसर, ते ना हो माह लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

भुखी रह के साडा ढिढ जो भरदी रही
सुख लयी साडे नित दुआवां करदी रही
ना कूचे गलियां शहर-गिरां लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

प्यार दा सोमा तू ममता दी मूरत है
छोटे वड्डे सब नूं तेरी ज़रूरत है
बिन तेरे पास पतझड़ अते खिज़ां लभणी
धन दौलत ते मिल जाणी नहीं मां लभणी
लभदे लभदे थक जांगे नहीं मां लभणी

--'नूर' रवि नूर सिंह

यहाँ के बाशिंदे बिगाड़ने चले है, तासीर मेरी

यहाँ के बाशिंदे बिगाड़ने चले है, तासीर मेरी
तुझे क्या मालूम ये महफ़िल है दोमनगीर मेरी

दिलो-दिमाग चीर के बनी है कलम तीर मेरी
ना समझो को क्या समझ आएगी तहरीर मेरी

चंद दिनों में इन दरख्तों से पत्ते टूटने वाले है
इस महफ़िल में कैसे बन पाएगी तकदीर मेरी

मै उसको छोड़कर इस बज्म में आया करता हूँ
कितना तड़पती है एजाज-ए-बेदिल हीर मेरी

वो कुछ बोलते तो क्या बोलते, कुछ ना बोलते
उन्होंने चुप रह कर ही करदी है तहकीर मेरी

मेरी लियाक़त अभी, खुदा को भी नहीं मालूम
आसमान मेरी छत और जमीन है जागीर मेरी

जबान का नहीं कलम इस्तेमाल करू हूँ अत्फाल
नजर ऊची कर बेदिल अब होनी है ताबीर मेरी


१. तहकीर - insult
२. लियाक़त - ability
३. अत्फाल - baby
४. ताबीर - interpretation
५. दोमनगीर - dependent

Deepak "bedil"...

तुम्हें बख्शी है दिल पे हुकमरानी, और क्या देते

तुम्हें बख्शी है दिल पे हुकमरानी, और क्या देते
ये ही थी बस अपनी राजधानी, और क्या देते

सितारों से किसी की मांग भरना इक फसाना है
तुम्हारे नाम लिख दी ज़िन्दगानी, और क्या देते

वो हम से मांगता था उम्र का इक दिल नशीं हिस्सा
न देते उसको हम अपनी जवानी, और क्या देते

बिछड़ते वक्त उसको इक ना इक तोहफा तो देना था
हमारे पास था आंखों में पानी, और क्या देते

--अज्ञात

मज़ा आ जायेगा महफिल में सुनने सुनाने का

मज़ा आ जायेगा महफिल में सुनने सुनाने का
वो मेरे दिल में होंगे, और दुनिया ढूँढती होगी
--अज्ञात

ना है सारे शहर में दीवाना मुझसा

ना है सारे शहर में दीवाना मुझसा
जल्द ही हो जायेगा जमाना मुझसा

तुम ख़ुशी, ख़ुशी की दवा लिखते हो
तब भी ना आएगा मुस्कुराना मुझसा

शेर-शायरी में हाथ-पैर मारने वालो
कभी तो सुनाया करो फ़साना मुझसा

मै नही एक पंहुचा हुआ रिंद तो क्या
तू कुछ हो तो सजा मयखाना मुझसा

नए ख़याल नए विचार ला दे दे मुझे
दुनिया याद करेगी, अफसाना मुझसा

उन आशिको का इश्क बयान करता हूँ
जो चाहते है ख़ुशी और याराना मुझसा

बेदिल राजा है सारे दिल्ली शहर का
हर महफ़िल में करो आना-जाना मुझसा

--दीपक बेदिल

मुद्‍दआ वयान हो गया

मुद्‍दआ वयान हो गया
सर लहू-लुहान हो गया।

कै़द से रिहाई क्या मिली
तंग आसमान हो गया।

तेरे सिर्फ़ इक वयान से
कोई बेजुबान हो गया।

छिन गया लो कागज़े-हयात
ख़त्म इम्तिहान हो गया।

रख गया गुलाब क़ब्र पर
कौन कद्रदान हो गया।

--दिक्षीत दनकौरी


Source : http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/08/blog-post_22.html

कभी अपने हाथों में मेरा हाथ नही रखता

कभी अपने हाथों में मेरा हाथ नही रखता
वो साथ तो रहता है मुझे साथ नही रखता

या तो मुझसे कभी मेरे वो सपने ना चुरता
या मेरी आँखों में लंबी सी रात नही रखता

उसने तो दिल से मेरा ये प्यार भी निकाला
सच कहा था दिल में कोई बात नही रखता

फैला के दामन भी उस से प्‍यार ना मिलेगा
फकीरों के हाथों मे कभी खैरात नही रखता

हर बार नयी ठोकर उस मासूम को मिली है
अपने साथ गुजिश्ता तज़रबात नही रखता

--अनिल पराशर

तुम्हारा आईना जो बनाना पड़ेगा

तुम्हारा आईना जो बनाना पड़ेगा
चाँद को ही ज़मीन पे लाना पड़ेगा
--अनिल पराशर

Saturday, August 22, 2009

हम अपने बचने कि कोई सबील क्या करते

हम अपने बचने की कोई सबील क्या करते
गवाह टूट गए थे, अपील क्या करते

अदालतों ही में जब लेन देन होने लगे,
तुम्ही बताओ बेचारे वकील क्या करते

जब अपने जिस्म के हिस्से ही अपने दुश्मन हो,
फिर अपने जिस्म कि सरहद को सील क्या करते

तमाम लोग खुशामद कि शाल ओढे थे,
तो हम भी अपनी अना को जलील क्या करते

--अज्ञात

उठ रहा कैसा दिल से धुआं देखिये

उठ रहा कैसा दिल से धुआं देखिये
हो गया इश्क शायद जवां देखिये

आप ही आप बस आ रहे हैं नजर
शौक से अब तो चाहे जहां देखिये

बात अपनी भले ही पुरानी सही
आप बस मेरा तर्जे-बयां देखिये

रहबरों रहजनों में हुई दोस्ती
अब जो लुटने लगे कारवां देखिये

आपकी तो ये ठहरी अदा ही मगर
लुट गया अपना तो कुल जहां देखिये

शोर कैसा खुदाया !ये बस्ती में है
उठ रहा है ये कैसा धुआं?देखिये

खत्म होने को ही है ये दौरे-खिजां
अब आप रौनके-गुलिस्तां देखिये

गर ये ऐसी ही रफ्तार कायम रही
कुछ दिनों बाद हिन्दोस्तां देखिये

दुल्हने सुब्‌ह अब सो के उठने को है
अब जरा सूरते आसमां देखिये

जाने वाला तो कब का चला भी गया
पांव के सिर्फ बाकी निशां देखिये

गोपियां मुझसे गोकुल की हैं पूछतीं
श्याम’को अपने ढूंढे कहां देखिये

--श्याम सखा श्याम


Source : http://kavita.hindyugm.com/2009/08/blog-post_20.html

Friday, August 21, 2009

दस्तूर किसी मजहब का ऐसा भी निराला हो

दस्तूर किसी मजहब का ऐसा भी निराला हो
एक हाथ में हो इल्म ,दूजे में निवाला हो
--अज्ञात


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Wednesday, August 19, 2009

हर करम नागवार गुज़रे

तेरे बिना वक्त के हर करम नागवार गुज़रे,
सूखे सूखे से फिर ये मौसम-ए-बहार गुज़रे ।
--आदित्य उपाध्याय

दवा की तरह खाते जाईयें गाली बुजुर्गों की

दवा की तरह खाते जाईयें गाली बुजुर्गों की,
जो अच्छे फल है उनका ज़ायका अच्छा नहीं होता
--मुनव्वर राणा

Sunday, August 16, 2009

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हरसाल कटता है

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है, कभी तिरपाल कटता है
दिखाते हैं पड़ौसी मुल्क़ आँखें, तो दिखाने दो
कभी बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है?
--मुनव्वर राणा

कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है

कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
--शकील बदायूनी

शाम को जिस वक़्त

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
--राजेश रेड्डी


Source : http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/08/blog-post_14.html

रोज़ सवेरे दिन का निकलना

रोज़ सवेरे दिन का निकलना, शाम में ढलना जारी है
जाने कब से रूहों का ये ज़िस्म बदलना जारी है

तपती रेत पे दौड़ रहा है दरिया की उम्मीद लिए
सदियों से इन्सान का अपने आपको छलना जारी है

जाने कितनी बार ये टूटा जाने कितनी बार लुटा
फिर भी सीने में इस पागल दिल का मचलना जारी है

बरसों से जिस बात का होना बिल्कुल तय सा लगता था
एक न एक बहाने से उस बात का टलना जारी है

तरस रहे हैं एक सहर को जाने कितनी सदियों से
वैसे तो हर रोज़ यहाँ सूरज का निकलना जारी है

--राजेश रेड्डी


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शायर का पता-


राजेश रेड्डी
ए-403, सिल्वर मिस्ट, अमरनाथ टॉवर के पास,
सात बंगला, अंधेरी (प.) मुबंई - 61

Saturday, August 15, 2009

आईना देख के अपना सा मुँह ले के रह गया

आईना देख के अपना सा मुँह ले के रह गया
साहिब को दिल न देने का बड़ा गुरूर था
--अज्ञात

Friday, August 14, 2009

सौ बार मरना चाहा निगाहों में डूब कर

सौ बार मरना चाहा निगाहों में डूब कर
वो निगाहें झुका लेती है, हमें मरने नहीं देती
--अहमद फराज़

Tuesday, August 11, 2009

मैं जब भी उसके खयालों में खो सा जाता हूँ

मैं जब भी उसके खयालों में खो सा जाता हूँ
वो खुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे
--जान निसार अख्तर

Sunday, August 9, 2009

कत्ल जो मेरा करना चाहो

कत्ल जो मेरा करना चाहो, तो ना खंजर से वार करना
मेरे मरने के लिये तो काफी है, तुम्हारा ग़ैरों से प्यार करना
--अज्ञात

फिर उस के बाद ज़माने ने मुझे रौंद दिया

फिर उस के बाद ज़माने ने मुझे रौंद दिया
मैं गिर पड़ा था किसी और को उठाते हुए
--अज्ञात

Tuesday, August 4, 2009

किसी का हमसफ़र नहीं , इसका नहीं गिला मुझे

किसी का हमसफ़र नहीं , इसका नहीं गिला मुझे
पास गया तो जल जाऊंगा, भा गया है फासला मुझे
--कुलदीप अंजुम

दिल में आता है तुझे टूट कर चाहूँ जाना

दिल में आता है तुझे टूट कर चाहूँ जाना
छोड़ दूँ फिर तुझे प्यार में पागल कर के
--अज्ञात

Sunday, August 2, 2009

अशार मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं

अशार मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिये हैं

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिये हैं

आँखों में जो भर लोगे तो कांटों से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिये हैं

देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिये हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिये हैं

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिये हैं

--जान निसार अख्तर


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रहते हमारे पास तो ये टूटते ज़रूर

रहते हमारे पास तो ये टूटते ज़रूर
अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिये
--कुंवर बेचैन

ना तार्रूफ ना ताल्लुक है

ना तार्रूफ ना ताल्लुक है, मगर दिल अक्सर
नाम सुनता है तुम्हारा उछल पड़ता है

--राहत इंदोरी

ये वर्क वर्क तेरी दास्तां

ये वर्क वर्क तेरी दास्तां, ये सबक सबक तेरे तज़किरे
मैं करूँ तो कैसे करूँ अलग, तुझे ज़िन्दगी की किताब से
--अज्ञात

Saturday, August 1, 2009

एक पानी में भीगी हुई किताब

एक पानी में भीगी हुई किताब
जाने किसने?
सूखने के लिए रख दी है धूप में
--विनय प्रजापति


मुझे नहीं पता कि इसका भावार्थ क्या है, परन्तु ये चन्द पंक्तिया पसन्द आई तो, पोस्ट कर रहा हूँ
आप अपनी समझ के हिसाब से कमेन्ट करें कि क्या भावार्थ निकलता है इसका !!!