मेरे ही हाथों पर मेरी तकदीर लिखी है
और मेरी ही तकदीर पे मेरा बस नहीं चलता
--अज्ञात
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Monday, October 29, 2012
मेरे ही हाथों पर मेरी तकदीर लिखी है
तुम्हारी याद किसी मुफ़लिस की पूँजी जैसी
तुम्हारी याद किसी मुफ़लिस की पूँजी जैसी
जिसे हम साथ रखते हैं, जिसे हम रोज़ गिनते हैं
--अज्ञात
[मुफलिस=गरीब]
मुझे लिख कर कही महफूज़ कर लो दोस्तों
मुझे लिख कर कही महफूज़ कर लो दोस्तों
तुम्हारी यादाश्त से निकलता जा रहा हूँ मैं
--अज्ञात
वो मेरा होने से ज्यादा मुझे पाना चाहे ?.
उसी की तरहा मुझे सारा ज़माना चाहे ,
वो मेरा होने से ज्यादा मुझे पाना चाहे ?.
मेरी पलकों से फिसल जाता है चेहरा तेरा ,
ये मुसाफिर तो कोई और ठिकाना चाहे .
एक बनफूल था इस शहर में वो भी ना रहा,
कोई अब किस के लिए लौट के आना चाहे .
ज़िन्दगी हसरतों के साज़ पे सहमा-सहमा,
वो तराना है जिसे दिल नहीं गाना चाहे .
हम अपने आप से कुछ इस तरह हुए रुखसत,
साँस को छोड़ दिया जिस तरफ जाना चाहे .
--Unknown...
रिवाज़ तो यही है दुनिया का
रिवाज़ तो यही है दुनिया का..........मिल जाना....बिछड जाना
तुमसे ये कैसा रिश्ता है?? न मिलते हो...न बिछड़ते हो
--अज्ञात
इक तिरी याद का आलम कि बदलता ही नहीं
इक तिरी याद का आलम कि बदलता ही नहीं
वरना वक़्त आने पे हर चीज़ बदल जाती है.
--अज्ञात
Sunday, October 28, 2012
ख़ुश्बू की तरह आया वो तेज़ हवाओं में
ख़ुश्बू की तरह आया वो तेज़ हवाओं में
माँगा था जिसे हमने दिन रात दुआओं में
तुम छत पर नहीं आये मैं घर से नहीं निकला
ये चाँद बहुत लटका सावन कि घटाओं में
इस शहर में इक लड़की बिल्कुल है ग़ज़ल जैसी
फूलों की बदन वाली ख़ुश्बू सी अदाओं में
दुनिया की तरह वो भी हँसते हैं मुहब्बत पर
डूबे हुये रहते थे जो लोग वफ़ाओं में
--बशीर बद्र
वक़्त बदल रहा है ... वफ़ायें बदल रही है
मौसम बदल रहा है .. हवायें बदल रही है
वक़्त बदल रहा है ... वफ़ायें बदल रही है
असर दौर का .. मोहब्बत पर लाज़मी है
मर्ज़ मुस्तकिल है …. दवायें बदल रही है
--अमित हर्ष
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mausam badal rahaa hai .. hawaaye badal rahi hai
waqt badal rahaa hai …..… wafaaye badal rahi hai
asar daur ka ……..…. mohbbat pe laajimi hai
marz mustakil hai … dawaaye badal rahi hai
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* मुस्तकिल mustakil = स्थायी, शाश्वत, permanent, eternal
Wednesday, October 24, 2012
इस मोहब्बत में, मैं अकेली थी...
ना कोई ख्वाब ना कोई सहेली थी...
इस मोहब्बत में, मैं अकेली थी...
इश्क़ में तुम कहाँ के सच्चे थे...
जो अज़ीयत थी हम ने झेली थी...
याद अब कुछ नहीं रहा लेकिन...
एक दरिया था या हवेली थी...
जिस ने उलझा के रख दिया दिल को...
वो मुहब्बत थी या पहेली थी...
मैं ज़रा सी भी कम वफ़ा करती
तुम ने तो मेरी जान ले ली थी...
वक़्त के साँप खा गये उस को...
मेरे आँगन में ऐक चमेली थी...
इस शब-ए-गम में किस को बतलाऊं...
कितनी रोशन मेरी हथेली थी
--नोशी गिलानी
Sunday, October 21, 2012
उसे लोगों से मिलने मिलाने का शौक था
मुझे मिटटी के घर बनाने का शौक था
उसे आशियाने गिराने का शौक था
मैं खुद से रूठ जाता हूँ अक्सर इस लिए
मुझे रूठे हुए लोग मनाने का शौक था
उसे वादों की पासदारी पसंद न थी
लेकिन मुझे अहद निभाने का शौक था
मैं मसरूफ था तनहाइयों की तलाश में
उसे लोगों से मिलने मिलाने का शौक था
वो बेवफा थी इस में हैरत की बात क्या?
मुझे बेवफा से दिल लगाने का शौक था
--अज्ञात
http://www.freesms4.com/2010/04/27/mujhe-mitti-k-ghar-bananay-ka-shoq-tha/
Wednesday, October 17, 2012
पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफा के मुझे
पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफा के मुझे
जिसे क़रार ना आया कहीं भुला के मुझे
जूदाईयाँ हों तो ऐसी की उम्र भर ना मिले
फरेब तो दो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे
मैं खुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
उदास छोड़ गये आईना दिखा के मुझे
--अहमद फराज़
कुछ तसल्ली है दर्द ही से मुझे
क्या सरोकार अब किसी से मुझे
वास्ता था तो था तुझी से मुझे
बेहिसी का भी अब नही एहसास
क्या हुआ तेरी बेरूख़ी से मुझे
मौत के आरज़ू भी कर देखूं
क्या उम्मीदें थी ज़िंदगी से मुझे
फिर किसी पर ना ऐतबार आए
यूँ उतरो ना अपने जी से मुझे
तेरा ग़म भी ना हो तो क्या जीना
कुछ तसल्ली है दर्द ही से मुझे
कर गये किस क़दर तबाह 'ज़िया'
दुश्मन, अंदाज़-ए-दोस्ती से मुझे
--जिया जलंधरी
Tuesday, October 16, 2012
Dil ka ameer muqaddar ka gareeb tha
दिल का अमीर मुक़द्दर का गरीब था
मिल के बिछडना मेरा नसीब था
घः के भी कुछ न कर सके
घर भी जलता रहा, समंदर भी करीब था
--अज्ञात
Friday, October 5, 2012
ae kaash ke vo vaapis aa jaaye
कुछ उम्र की पहली मंजिल थी
कुछ रास्ते थे अनजान बहुत
कुछ हम भी पागल थे लेकिन
कुछ वो भी थे नादान बहुत
कुछ उसने भी न समझाया
ये प्यार नहीं आसान बहुत
आखिर हमने भी खेल लिया
जिस खेल में था नुकसान बहुत
जब बिखर गए तो ये जाना
आते हैं यहाँ तूफ़ान बहुत
जब बिखर गए तो ये जाना
आते हैं यहाँ तूफ़ान बहुत
अब कोई नहीं जो अपना हो
मिलने को हैं इंसान बहुत
ऐ काश वो वापिस आ जाए
ये दिल है अब सुनसान बहुत
कुछ रात की काली स्याही थी
कुछ सपने थे वीरान बहुत
यूं पास कड़ी थी मंजिल पर
या रब भटका इंसान बहुत
--अज्ञात
Wednesday, October 3, 2012
मगर उदास हूँ अब रास्ता दिखा के उसे
निशां तक न मिलेंगे मेरी वफ़ा के उसे
के मैंने राह बदल दी है आजमा के उसे !
कभी न हर्फ़ कोई उसकी सादगी का खुला
वर्क वर्क पढ़ा मैंने दिल लगा के उसे !!
जो सब का हाल हुआ था वो मेरा हाल हुआ,
बनी न बात, कोई बात भी सुना के उसे !!
मुझे यकीन है वो लौट कर भी आएगा
मगर उदास हूँ अब रास्ता दिखा के उसे
--अज्ञात