जन्नतें सारी फिर उधर निकले
फूल खिल जाये वो जिधर निकले
मुस्कुरा दे जो आसमां की तरफ
सब दुआओं में फिर असर निकलें
रात आती हैं उसकी ख्वाइश में
चाँद तारें भी रात भर निकलें
वो गुजर जाये जिस भी रस्ते से
महका महका सा वो सफ़र निकले
मंजिलें ढूँढती हैं खुद उसको
हर सफ़र बिन किये ही सर निकले
नाम लिख ले जो उसका कागज पर
वही दुनिया में सुखनवर निकले
दिन गुजर जाता हैं ये लम्हों में
उसके संग रात मुख़्तसर निकले.............Dr.Rohit "AYAAN"
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Monday, June 27, 2011
फूल खिल जाये वो जिधर निकले
Friday, June 24, 2011
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कितने ग़म थे जो तेरे ग़म के बहाने निकले
हिज्र कि चोट अजब सन्ग-शिकन होती है
दिल की बेफ़ैज़ ज़मीनों से ख़ज़ाने निकले
[hijr = separation; sang = stone; shikan = wrinkle/crease/crack]
[befaiz = that which does not yield anything]
उम्र गुज़री है शब-ए-तार में आँखें मलते
किस उफ़क़ से मेरा ख़ुर्शीद ना जाने निकले
[shab-e-taar = dark night; ufaq = horizon; Khurshiid = sun]
कू-ए-क़ातिल में चले जैसे शहीदों का जुलूस
ख़्वाब यूँ भीगती आँखों को सजाने निकले
[kuu-e-qaatil = beloved's street; juluus = procession]
दिल ने इक ईंट से तामीर किया ताज महल
तू ने इक बात कही लाख फ़साने निकले
[ii.nT = brick; taamiir = (to) construct]
मैंने 'अमजद' उसे बेवास्ता देखा ही नहीं
वो तो ख़ुश्बू में भी आहट के बहाने निकले
[bevaastaa = without reason]
--अमजद इस्लाम अमजद
Source : http://www.urdupoetry.com/amjad02.html
हमें जो छु लिया तो पिघल जाओगी जाना
पत्थर हो शबनम में बदल जाओगी जाना
हमें जो छु लिया तो पिघल जाओगी जाना
इस राह-ए-मोहब्बत में बहकते हैं सभी लोग
थामो हमारा हाथ संभल जाओगी जाना
तुम गैर से मिली हो, हमने तो सह लिया
हम गैर से मिलेंगे तो जल जाओगी जाना
उन प्यार के लम्हों में ये सोचा भी नहीं था
मौसम की तरह तुम भी बदल जाओगी जाना
ये रिश्ता जो टूटा तो मर जायेंगे हम तो
तुम को तजुर्बा है, संभल जाओगी जाना
अपनी नरम हथेलियों पे लिख लो मेरा नाम
पढ़ना उदासियों में बहल जाओगी जाना
'सतलज' से किसी हाल में आँखें न मिलाना
तुम अपने ही हाथो से निकल जाओगी जाना
--सतलज राहत
Satlaj rahat on facebook
Monday, June 20, 2011
तुम्हे 'सतलज' उसे पाने की खातिर
वफ़ा को आजमाना चाहिए था
हमारा दिल दुखाना चाहिए था
आना, न आना मेरी मर्ज़ी है
तुमको तो बुलाना चाहिए था
हमारी ख्वाहिश एक घर की थी
उसे सारा ज़माना चाहिए था
मेरी आँखें कहाँ नाम हुई थी
समंदर को बहाना चाहिए था
जहाँ पर पहुंचा मैं चाहता हूँ
वहाँ पे पहुँच जाना चाहिए था
हमारा ज़ख्म पुराना बहुत है
चरागार भी पुराना चाहिए था
मुझसे पहले वो किसी और की थी
मगर कुछ शायराना चाहिए था
चलो माना ये छोटी बात है मगर
तुम्हे सब कुछ बताना चाहिए था
तेरा भी शहर में कोई नहीं था
मुझे भी इक ठिकाना चाहिए था
के किस को किस तरह से भूलते हैं
तुम्हे मुझको सिखाना चाहिए था
ऐसा लगता है लहू में हमको
कलम को भी डुबाना चाहिए था
अब मेरे साथ के तंज न कर
तुझे जाना था, जाना चाहिए था
क्या बस मैंने ही की बेवफाई ?
जो भी सच है बताना चाहिए था
मेरी बर्बादी पे वो चाहता है
मुझे भी मुस्कुराना चाहिए था
बस एक तू ही मेरे साथ में है
तुझे भी रूठ जाना चाहिए था
हमारे पास जो ये फन है मिया
हमें इस से कमाना चाहिए था
अब ये ताज किस काम का है
हमें सर को बचाना चाहिए था
उसी को याद रखा उम्र भर
के जिसको भूल जाना चाहिए था
मुझसे बात भी करनी थी उसको
गले से भी लगाना चाहिए था
उसने प्यार से बुलाया था
हमें मर के भी आना चाहिए था
तुम्हे 'सतलज' उसे पाने की खातिर
कभी खुद को गवाना चाहिए था
--सतलज राहत
Satlaj rahat on facebook
Sunday, June 19, 2011
मेरे ज़ख्मो में उसकी दास्तान हो जैसे
सच में ही बहुत ऊंची उड़ान हो जैसे
मेरे पैरों के नीचे आसमान हो जैसे
मुझे दुनिया ने तमाशा बना रखा है
हर एक सांस नया इम्तिहान हो जैसे
बिछड के तुझसे लेटा हूँ अपने कमरे में
बहुत ही लंबे सफर की थकान हो जैसे
तुझे देखूं तो एक पल तो ऐसा लगता है
तू सच में मेरे लिए परेशान हो जैसे
हर एक पल, हर लम्हा बढती जाती है
तुम्हारी याद नहीं हो, लगान हो जैसे
तेरा ख़याल बस ख़याल, बस ख़याल तेरा
सारी दुनिया से ही दिल बदगुमान हो जैसे
वो मेरे जिस्म को इस तरह तकती रहती है
मेरे ज़ख्मो में उसकी दास्तान हो जैसे
मैं खुद के सामने ज़ाहिर तो ऐसा करता हूँ
तुझे भुला के बहुत इत्मिनान हो जैसे
'सतलज' तेरे कदम चूमते हैं ये रास्ते
हर एक मंजिल पे तेरा निशान हो जैसे
--सतलज राहत
Satlaj rahat on Facebook
Wednesday, June 15, 2011
इक ही शख़्स था जहान में क्या
ख़ामोशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मेरे गुमान में क्या
अब मुझे कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान में क्या
बोलते क्यों नहीं मेरे हक़ में
आबले पड़ गये ज़ुबान में क्या
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अभी हूँ मैं तेरी अमान में क्या
शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुकसान तक दुकान में क्या
यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
इक ही शख़्स था जहान में क्या
--जौन इलिया
Tuesday, June 14, 2011
इश्क के मारे
इस दुनिया में हर बिगड़ी बन जाती है
इश्क के मारे, इश्क के मारे रहते हैं
-- सतलज राहत
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ठहरे हो क्यूं यहाँ पे, गुज़र क्यों नहीं जाते
ठहरे हो क्यूं यहाँ पे, गुज़र क्यों नहीं जाते
इतनी बुरी है दुनिया, तो मर क्यों नहीं जाते
तुमको पता है, ज़ख्मों से, पैरों से, बारहा
खुद ठोकरों ने पूछा, सुधर क्यों नहीं जाते
[बारहा=बार बार]
किस की पनाह में तुझको गुज़ारे ऐ जिंदगी
रास्तों ने भी तो कह दिया, घर क्यों नहीं जाते
बर्बाद हो रही है निभाने में जिंदगी
जो कह दिया है उस से मुकर क्यों नहीं जाते
बिछड़ा अगर मैं तुमसे तो मर जाऊँगा जानम
तुमको डरा रहा हूँ मैं, डर क्यों नहीं जाते
परवरदिगार मेरे मुकद्दर में हिज्र क्यों
दिन सारे मोहब्बत में गुज़र क्यों नहीं जाते
मेरी वफ़ा की राह में चाहत में कई बार
मरने का कहते आये हो, मर क्यों नहीं जाते
कितनी हसीं जुल्फें हैं, चेहरा गुलाब है
क्या बात है ख्यालों इधर क्यों नहीं जाते
इस मोड से अब तेरे मेरे रास्ते अलग हैं
इस मोड पे कुछ देर ठहर क्यों नहीं जाते
सौ बार तमन्ना का मेरी खून किया है
तुम अब मेरी नज़रों से उतर क्यों नहीं जाते
दावे से इन्तेहा यही ज़ब्त करने की है
'सतलज' सहोगे कितना बिखर क्यों नहीं जाते
--सतलज राहत
Satlaj raahat on Facebook
चराग बन के जल सकेगा क्या ?
चराग बन के जल सकेगा क्या ?
मोम जैसा पिघल सकेगा क्या?
तूने जूते तो पहले लिए मेरे
चाल भी मेरी चल सकेगा क्या ?
--सतलाज राहत
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Sunday, June 12, 2011
मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे
मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे
मुझे ग़म देने वाले तू खुशी को तरसे
तू फूल बने पतझड़ का, तुझ पे बहार न आए कभी
मेरी ही तरह तू तड़पे तुझको क़रार न आए कभी
जिये तू इस तरह के ज़िंदगी को तरसे
इतना तो असर कर जाएं मेरी वफ़ाएं ओ बेवफ़ा
जब तुझे याद आएं अपनी जफ़ाएं ओ बेवफ़ा
पशेमां होके रोए, तू हंसी को तरसे
तेरे गुलशन से ज़्यादा, वीरान कोई वीराना न हो
इस दुनिया में कोई तेरा, अपना तो क्या, बेगाना न हो
किसी का प्यार क्या तू, बेरुख़ी को तरसे
--आनंद बख्शी
Sunday, June 5, 2011
वो एक रोज़ न आये तो याद आये बहुत
कभी कभी तेरा मैखाना याद आये बहुत
की एक बूँद भी न पी और लडखडाये बहुत
किताबे दिल को जो पानी में फ़ेंक आये थे
तेरे दिए हुए कुछ फूल याद आये बहुत
मिला था राह में एक आंसुओं का सौदागर
हम उसकी आँख के मोती खरीद लाये बहुत
वो रोज़ रोज़ जो बिछड़े तो कौन याद करे
वो एक रोज़ न आये तो याद आये बहुत
--अज्ञात
मुसीबतों से उभरती है शक्सियत यारो
मुसीबतों से उभरती है शक्सियत यारो
जो पत्थरों से न उलझे वो आइना क्या है
--वसीम बरेलवी
हमें भूल जाना क़सम दे रहे हैं
बड़ी बेबसी है जो गम दे रहे हैं
हमें भूल जाना क़सम दे रहे हैं
जो दिल में कभी थी, उसी आरज़ू का
मोहब्बत से हो की उसी गुफ्तगू का
तुम्हे वास्ता हम सनम दे रहे हैं
हमें भूल जाना कसम दे रहे हैं
पलक पे रखेंगे तुम्हे सोचते थे,
कभी गम न देंगे तुम्हे, सोचते थे
मगर देखो आज सितम दे रहे हैं
हमें भूल जाना कसम दे रहे हैं
तुम्हारी नज़र से हँसे हर नज़ारे
क़दम दर क़दम हर खुशी हो तुम्हारे
दुआ जाते जाते, ये हम दे रहे हैं
हमें भूल जाना क़सम दे रहे हैं
हमें बेखुदी ने किया आज गाफिल
नहीं हैं तुम्हारी मोहब्बत के काबिल
इशारा बहकते क़दम दे रहे हैं
हमें भूल जाना क़सम दे रहे हैं
--जिगर शियोपुरी
Wednesday, June 1, 2011
जी जानता है
लुत्फ़ इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है
रंज भी इतने उठाए हैं कि जी जानता है
जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने
तूने दिल इतने दुखाए हैं कि जी जानता है
--दाग देहलवी
तुम मेरे दिन रातों में आ जाते हो
तुम मेरे दिन रातों में आ जाते हो
आंसू बन कर आँखों में आ जाते हो
एक तुम्ही से इश्क है मुझको जन्मों से
क्यों लोगों की बातों में आ जाते हो
--सतलाज राहत