खता मैंने कोई भारी नहीं की
अमीर-ए-शहर से यारी नहीं की
(अमीर-ए-शहर=powerful people of the city)
किसी मनसब किसी ओहदे की खातिर
कोई तदबीर बाजारी नहीं की
(मनसब : exalted position, ओहदे : position of influence, तदबीर : efforts)
बस इतनी बात पर दुनिया खफा है
के मैंने तुझ से गद्दारी नहीं की
मिरी बातों में क्या तासीर होती
कभी मैंने अदाकारी नहीं की
तासीर=effect
मिरे ऐबों को गिनवाया तो सब ने
किसी ने मेरी गम-ख्वारी नहीं की
--ताबिश मेहंदी
Source : http://aligarians.com/2007/08/khataa-maine-koii-bhaarii-nahiin-kii/
If you know, the author of any of the posts here which is posted as Anonymous.
Please let me know along with the source if possible.
Sunday, November 28, 2010
खता मैंने कोई भारी नहीं की
गुलशन की फक़त फूलों से नहीं, काँटों से भी ज़ीनत होती है
गुलशन की फक़त फूलों से नहीं, काँटों से भी ज़ीनत होती है
जीने के लिए इस दुनिया में, गम की भी ज़रूरत होती है
ए वाइज़-ए-नादाँ करता है तू एक क़यामत का चर्चा
यहां रोज़ निगाहें मिलती हैं, यहां रोज़ क़यामत होती है
वो पुरसिश-ए-गम को आये हैं, कुछ कह ना सकूं, चुप रह ना सकूं
खामोश रहूँ तो मुश्किल है, कह दूं तो शिकायत होती है
[पुरसिश : Inquiry, To Show Concern (About)]
करना ही पडेगा ज़प्त-ए-आलम पीने ही पड़ेंगे ये आंसू
फरयाद-ओ-फुगाँ से ए नादाँ, तौहीन-ए-मुहब्बत होती है
[फुगाँ=Clamor, Cry Of Distress, Cry Of Pain, Lamentation, Wail]
जो आके रुके दामन पे 'सबा' वो अश्क नहीं है पानी है
जो अश्क ना छलके आंखों से, उस अश्क की कीमत होती है
गुलशन की फकत फूलों से नहीं, कांटो से भी ज़ीनत होती है,
जीने के लिये इस दुनिया में, गम की भी ज़रूरत होती है !
--सबा अफ़गानी
Saturday, November 27, 2010
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता
खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता
--कैफी आज़मी
Source : http://www.urdupoetry.com/kaifi07.html
Sunday, November 21, 2010
तुम्हारे वास्ते क्या सोचते हैं
मुकद्दर आजमाना चाहते हैं
तुम्हें अपना बनाना चाहते हैं
तुम्हारे वास्ते क्या सोचते हैं
निगाहों से बताना चाहते हैं
गलत क्या है, जो हम दिल मांग बैठे
परिंदे भी ठिकाना चाहते हैं
परिस्थितियां ही अक्सर रोकती हैं
मुहब्बत सब निभाना चाहते हैं
बहुत दिन से हैं इन आँखों में आंसू
तुषार अब मुस्कुराना चाहते हैं
--नित्यानंद तुषार
http://ntushar.blogspot.com/
Saturday, November 20, 2010
तेरी दुनिया से होके मजबूर चला ...फ़िल्म : पवित्र पापी
तेरी दुनिया से हो के मजबूर चला
मैं बहुत दूर, बहुत दूर, बहुत दूर चला
तेरी दुनिया से ...
इस क़दर दूर हूँ मैं लौट के भी आ न सकूँ
ऐसी मंज़िल कि जहाँ खुद को भी मैं पा न सकूँ
और मजबूरी है क्या, इतना भी बतला न सकूँ
तेरी दुनिया से ...
आँख भर आयी अगर, अश्क़ों को मैं पी लूँगा
आह निकली जो कभी, होंठों को मैं सी लूँगा
तुझसे वादा है किया, इस लिये मैं जी लूँगा
तेरी दुनिया से ...
खुश रहे तू है जहां ले जा दुआएं मेरी
तेरी राहों से जुदा हो गयी राहें मेरी
कुछ नहीं साथ मेरे, बस हैं खताएं मेरी
तेरी दुनिया से ..
Thursday, November 18, 2010
मैं पट्रीयों की तरहा ज़मी पर पड़ा रहा
मैं पट्रीयों की तरहा ज़मी पर पड़ा रहा
सीने से गम गुज़रते रहे रेल की तरह
--मुनव्वर राणा
Monday, November 15, 2010
Tuesday, November 9, 2010
यूँ हुआ है कुछ मौसम का असर देखिए
Pune becomes very beautiful during rains.
It has been raining since last 3-4 days
and my city is looking like paradise on earth.
I dedicate this poem to my Pune.
यूँ हुआ है कुछ मौसम का असर देखिए
खिलखिलाता है हर सूखा हुआ शज़र देखिए
हर शय शर्माई हुई सी सिमटी हुई सी कुछ
जहाँ तक भी जाती है नज़र देखिए
मरमरी सर्दी की गुलाबी सुबह के थरथराते होंठ
बजने लगी है आशिको की ग़ज़र देखिए
कुछ साँवले से हुए है दिन आजकल
शाम सी लगती है दोपहर देखिए
कंबल के अंदर अंगड़ाई लेती अलसाई नींद
कितनी चैन से हुई हैं रातें बसर देखिए
खुदा की इस कायनात से क्यूँ ना हो जाए इश्क़ भला
किसी माशूक की सूरत सा लगता मेरा शहर देखिए
--मनीषा पाण्डेय
बुलंदी देर तक किस शक्स के हिस्से मे रहती है
बुलंदी देर तक किस शक्स के हिस्से मे रहती है,
बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी ख़तरे मे रहती है
बहुत जी चाहता है क़ैद ए जान से हम निकल जायें,
तुम्हारी याद भी लेकिन इसे मलबे मे रहती है
यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नही सकता,
मैं जब तक घर ना लौटूं मेरी माँ सजदे मे रहती है
अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब मे नंगी नज़र आई
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे मे रहती है
मैं इंसान हूँ बहक जाना मेरी फ़ितरत मे शामिल है,
हवा भी उसको छूकर देर तक नशे मे रहती है
मोहब्बत मे परखने जाँचने से फ़ायदा क्या है,
कमी थोड़ी बहुत हर एक के शज्जर मे रहती है
ये अपने आप को तक्सीम कर लेता है सूबों मे ,
खराबी बस यही हर मुल्क के नक्शे मे रहती है
--मुनव्वर राणा