Monday, October 25, 2010

रात बिस्तर पे अब चुपचाप जगी रहती है

रात बिस्तर पे अब चुपचाप जगी रहती है,
खुश है चेहरे से पर दिल से बुझी रहती है.

सुर्ख़ आँखों की वजह ना मानियेगा पैमाने,
जागता मैं भी हूँ ये यादों से सजी रहती है.

सर्द आहों में खुदा उफ़ होता है हुनर कैसा,
नव्ज़ जम जाती है औ सांस जली रहती है.

मैं चिराग ढूंढने निकला हूँ, अँधेरे का मारा,
आज-कल उनकी गली, तारों भरी रहती है.

न हुस्न चाहिए, चाहत थी, महज़ दिल की,
इश्क की नज़र ये भला कहाँ भली रहती है.

देखकर चेहरा मेरा, न पालिये ग़लतफ़हमी,
कितना घुटता हूँ जब चेहरे पे हँसी रहती है.

यूँ तो हर दर पे है खुदा जारी तिजारत तेरी,
दुआ से फिर भी आदि' आस लगी रहती है.


--आदित्य उपाध्याय

1 comment:

  1. देखकर चेहरा मेरा, न पालिये ग़लतफ़हमी,
    कितना घुटता हूँ जब चेहरे पे हँसी रहती है.
    बहुत बढ़िया लगा ये शेअर

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