ख़ुशनुमा, दिलकश, फ़स्ल-ए-बहार की तरह
रंग-ए-दुनिया भी बिलकुल इश्तिहार की तरह
महज़ एक नई तारीख़ बताने की ख़ातिर
सूरज निकलता है रोज़ बस अख़बार की तरह
वफ़ा की जगह अब नफ़ा तलाशते हैं
लोग इश्क़ भी करते हैं कारोबार की तरह
रस्मन, मजबूरन तो कभी ख़ुशी के साथ
हम मनाएंगे भी तुझे तो त्यौहार की तरह
टूट जाएँ पुराने तो नये हाज़िर हैं
वो वादे भी करता है तो सरकार की तरह
बाँधते हैं एहतियात से फिर क्यों रेज़ा रेज़ा
उम्मीदें भी बिखर जातीं हैं एतबार की तरह
कुछ नवाजेंगे मोहब्बत-ओ-दाद से खुलकर
कुछ नज़रअंदाज़ भी करेंगे हरबार की तरह
हक़ीक़त तो कभी कहीं कुछ फ़साने ‘अमित’
दर्ज करता रहता है यहाँ अशआर की तरह
अमित हर्ष