Monday, December 31, 2018

वो वादे भी करता है तो सरकार की तरह

ख़ुशनुमा, दिलकश, फ़स्ल-ए-बहार की तरह 
रंग-ए-दुनिया भी बिलकुल इश्तिहार की तरह 

महज़ एक नई तारीख़ बताने की ख़ातिर 
सूरज निकलता है रोज़ बस अख़बार की तरह 

वफ़ा की जगह अब नफ़ा तलाशते हैं
लोग इश्क़ भी करते हैं कारोबार की तरह

रस्मन, मजबूरन तो कभी ख़ुशी के साथ
हम मनाएंगे भी तुझे तो त्यौहार की तरह 

टूट जाएँ पुराने तो नये हाज़िर हैं
वो वादे भी करता है तो सरकार की तरह 

बाँधते हैं एहतियात से फिर क्यों  रेज़ा रेज़ा
उम्मीदें भी बिखर जातीं हैं एतबार की तरह 

कुछ नवाजेंगे मोहब्बत-ओ-दाद से खुलकर
कुछ नज़रअंदाज़ भी करेंगे हरबार की तरह

हक़ीक़त तो कभी कहीं कुछ फ़साने ‘अमित’
दर्ज करता रहता है यहाँ अशआर की तरह

अमित हर्ष

Friday, December 28, 2018

हर बात पे ऐ दोस्त ! ग़म नहीं करते

लज्ज़त-ए-ज़िन्दगी  कम नहीं करते
हर बात पे ऐ दोस्त !  ग़म नहीं करते

दिक्कतें खटखटाती है दरवाजा रह रह के
पर उनसे मुलाक़ात अब हम नहीं करते

मायूस हो जायेंगी मंजिलें न पा कर तुझे
बढ़ाकर आगे  यूं पीछे क़दम नहीं करते

नेमत है खुदा की और इबादत भी है ये
मेरी जान !  इश्क में शरम नहीं करते

न ज़िक्र तकलीफ का,  न शिकवा कोई
सितम पे उनके यूं  सितम नहीं करते

मसला ही हुआ हल, न खातमा किरदार का
बीच कहानी किस्सा यूं खतम नहीं करते

बेपनाह मोहब्बतों से नवाज़ा गैरों ने यूं तो
फ़क़त अहबाब ‘अमित’ पे करम नहीं करते

* * अहबाब ahbaab = मित्रगण, दोस्त friends (हबीब का बहुवचन)

-- अमित हर्ष

Friday, October 26, 2018

आप हमारे कब थे

हमने साथ मे दो पल गुज़ारे कब थे
एक गुमान सा था आप हमारे कब थे

अज्ञात

Friday, October 5, 2018

तजुर्बे के मुताबिक खुद को ढाल लेता हूं

*तजुर्बे के मुताबिक़, खुद को ढाल लेता हूं,,!*
*कोई प्यार जताए तो, जेब संभाल लेता हूं,,,!!*

*नहीं करता थप्पड़ के बाद, दूसरा गाल आगे,,!*
*खंजर खींचे कोई, तो तलवार निकाल लेता हूं,,,!!*

*वक़्त था सांप की, परछाई डरा देती थी,,!*
*अब एक आध मै, आस्तीन में पाल लेता हूं,,!!*

*मुझे फासने की, कहीं साजिश तो नहीं,,!*
*हर मुस्कान ठीक से, जांच पड़ताल लेता हूं,,,!!*

*बहुत जला चुका उंगलियां, मैं पराई आग में,,!*
*अब कोई झगड़े में बुलाए, तो मै टाल देता हूं,,,!!*

*सहेज के रखा था दिल, जब शीशे का था,,!*
*पत्थर का हो चुका अब, मजे से उछाल लेता हूं,,,,!!*

Tuesday, September 25, 2018

रात तेरे ख्वाब मददगार गुज़रे

भूलने लगे जो विसाल-ए-यार गुज़रे
लम्हात-ए-याद मगर यादग़ार गुज़रे

कट गई तमाम शब देखते देखते
रात तेरे ख्वाब .. मददगार गुज़रे

फ़क़त एक इश्क़ से घबरा गए आप
ये हादसे संग मेरे .. कई बार गुज़रे

मिलो तुम हरदम महंगाई की तरह
उम्मीद लिए हम सरे-बाज़ार गुज़रे

ज़रुरतमंद हूँ ये ख़बर क्या फ़ैली
बचकर सरेराह दोस्त-यार गुज़रे

मुफ़्त अच्छी है शायरी ‘अमित’ की
कहते हुए दर से मेरे खरीदार गुज़रे

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bhoolne lage jo visaal-e-yaar guzare
lamhaat-e-yaad magar yaadgaar guzare

kat gayi tamaam shab dekhte dekhte
raat tere khwaab .. madadgaar guzare

faqat ek ishq se ghabraa gaye aap
ye haadase sang mere .. kai baar guzre

milo tum hardam mehngaayi kii tarah
ummeed liye ham sare bazaar guzre

zarooratmand hoon ye khabar kya failii
bachkar sareraah dost-yaar guzare

muft achchhi hai shayari ‘amit’ kii
kahte huye sar se mere khreedaar guzre

लंबी कर दी

मुख़्तसर सी थी सो शुरुआत लम्बी कर दी
कुछ इस तरह से हमने बात लम्बी कर दी

सुबह तलक टूट जायेंगे मालूम था ख़्वाब
बस इस ख़ातिर खींचकर रात लम्बी कर दी

ऐ ज़िन्दगी तुझसे मिलकर अच्छा तो लगा
पर तूने बेवजह मुलाक़ात लम्बी कर दी

छाई कुछ यूँ कि घटती ही नहीं तनिक
घटा ने बढ़ाकर बरसात लम्बी कर दी

बात बात में ‘अमित’ ये छोटी सी ग़ज़ल
तुमने देखो बिना-बात लम्बी कर दी

Sunday, September 23, 2018

फ़िक्र-ए-दुनिया, ग़म-ए-रोज़गार, यादें तुम्हारी

बस मुलाक़ातें हक़ीक़त से टालते रहना
यूँ बुरा नहीं पास कुछ मुग़ालते रहना

मुमकिन है मिल जायें कुछ अनछुए भी
तुम ख़्यालों को यूँ ही खंगालते रहना

खींचेंगे पीछे, फिर काटेंगे पलटकर
अच्छा नहीं बीते पल, पालते रहना

आग पेट की या सीने की, बुझनी चहिए
मुनासिब नहीं लहू यूं उबालते रहना 

मंज़िलें गुम गईं पर सफ़र तो संग है
चलने वास्ते रास्ते निकालते रहना

तैरते हैं हवा में उन सियासी के दरमियाँ 
कुछ मुद्दे मुहब्बत के उछालते रहना

फ़िक्र-ए-दुनिया, ग़म-ए-रोज़गार, यादें तुम्हारी
बहुत मुश्किल संग सब संभालते रहना 

अब हवाले तुम्हारे हर मिसरे हमारे 
ये अमानत ‘अमित’ की देखते-भालते रहना

Amit Harsh

Wednesday, September 12, 2018

*पत्थर का हो चुका अब मजे से उछाल लेता हूँ...*

*तजुर्बे के मुताबिक़ खुद को ढाल लेता हूँ,*
*कोई प्यार जताए तो जेब संभाल लेता हूँ...*

*नहीं करता थप्पड़ के बाद दूसरा गाल आगे,*
*खंजर खींचे कोई तो तलवार निकाल लेता हूँ...*

*वक़्त था सांप की परछाई डरा देती थी,*
*अब एक आध मैं आस्तीन में पाल लेता हूँ...*

*मुझे फांसने की कहीं साजिश तो नहीं,*
*हर मुस्कान ठीक से जांच पड़ताल लेता हूँ...*

*बहुत जला चुका उंगलियां मैं पराई आग में,*
*अब कोई झगड़े में बुलाए तो मैं टाल देता हूँ...*

*सहेज के रखा था दिल जब शीशे का था,*
*पत्थर का हो चुका अब मजे से उछाल लेता हूँ...*