Sunday, September 23, 2018

फ़िक्र-ए-दुनिया, ग़म-ए-रोज़गार, यादें तुम्हारी

बस मुलाक़ातें हक़ीक़त से टालते रहना
यूँ बुरा नहीं पास कुछ मुग़ालते रहना

मुमकिन है मिल जायें कुछ अनछुए भी
तुम ख़्यालों को यूँ ही खंगालते रहना

खींचेंगे पीछे, फिर काटेंगे पलटकर
अच्छा नहीं बीते पल, पालते रहना

आग पेट की या सीने की, बुझनी चहिए
मुनासिब नहीं लहू यूं उबालते रहना 

मंज़िलें गुम गईं पर सफ़र तो संग है
चलने वास्ते रास्ते निकालते रहना

तैरते हैं हवा में उन सियासी के दरमियाँ 
कुछ मुद्दे मुहब्बत के उछालते रहना

फ़िक्र-ए-दुनिया, ग़म-ए-रोज़गार, यादें तुम्हारी
बहुत मुश्किल संग सब संभालते रहना 

अब हवाले तुम्हारे हर मिसरे हमारे 
ये अमानत ‘अमित’ की देखते-भालते रहना

Amit Harsh

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