Friday, January 7, 2011

खामखाह तो नहीं मौत से डर रहा हूँ मैं..

खामखाह तो नहीं मौत से डर रहा हूँ मैं.....
कोई तो है जिसके लिए नहीं मर रहा हूँ मैं.....

उसे अपने किये पे शर्मिंदा न होना पड़े...
इसलिए ये जिन्दंगी बसर कर रहा हूँ मैं

उसे अपने फैसले पे अफ़सोस ना हो...
इसलिए कामयाबी से अपनी डर रहा हूँ मैं...

मरने की तम्मना बची न जीने की आरज़ू रही....
बेमन से दोनों ही काम कर रहा हूँ मैं.....

तेरे दीदार की इच्छा लिए फिरता हूँ आँखों में..
काम नाजायज है लेकिन कर रहा हूँ मैं..

थोड़ी ताज़ा बयार लगे तो रूह को सकूँ मिले..
कब से यादो के इस बंद कमरे में सड रहा हूँ मैं....

कुछ दिन भले लगे थे ये प्यार महोबत के नगमे...
अब फिराक को ही फिर से पढ़ रहा हूँ मैं....

कल तुझे भूलने का वादा किया था खुद से...
आज फिर उस वादे से मुकर रहा हूँ मैं...

वो मिलता तो जाने क्या करता....
उसके बिना तो शायरी कर रहा हूँ मैं....

कुछ लिहाज़ मेरा नहीं तो अपने माझी का ही कर ले..
कुछ दिन तो तेरा हमसफ़र रहा हूँ मैं...

लोग कहते है मैंने ख़ुदकुशी की है...
मुझे लगता है की तेरे हाथो मर रहा हूँ मैं......

तेरे बिना भी ये दिल्ली अच्छी लगने लगे....
एक नाकाम सी कोशिश फिर कर रहा हूँ मैं...

--अमोल सहारन

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