किताबों में फ़साने ढूँढ़ते हैं
नादाँ हैं वो गुज़रे ज़माने ढूँढ़ते हैं
जब वो थे तलाश-ए-जिंदगी भी थी
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढ़ते हैं
कल खुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था
आज हुए से दीवाने ढूँढ़ते हैं
मुसाफिर बेखबर है तेरी आँखों से
तेरे शहर में मैखाने ढूँढ़ते हैं
उनकी आँखों को यूं मत देखो......
उनकी आँखों को यूं मत देखो......
मत देखो यार...
उनकी आँखों को यूं मत देखो......
नए तीर हैं, निशाने ढूँढ़ते हैं
--अज्ञात
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Monday, January 3, 2011
आज हुए से दीवाने ढूँढ़ते हैं ...
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बहुत ही प्यारी रचना है। आभार।
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मिल गया खुशियों का ठिकाना।
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं?