जब भी मिलना हो किसी से, ज़रा दूरी रखना
जान ले लेता है, सीने से लगाने वाला
--नित्यानंद तुषार
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Thursday, January 13, 2011
जब भी मिलना हो किसी से, ज़रा दूरी रखना
Sunday, January 9, 2011
वो अपनी मजबूरियाँ बता रहा था..
वो अपनी मजबूरियाँ बता रहा था..
मुझे लगा कि पीछा छुडा रहा था..
जेहन खो चुका था आँफिस की जी हजूरी मे
दिल अब तलक मुझे दिल्ली घुमा रहा था
उसे भुलाने की कोशिशे पलटवार कर गयी
भूला हुआ भी अब तो याद आ रहा था
तन्हाइयो मे ही गुजरी सब नाकामियाँ अपनी
अब हर कोई साथी अपना बता रहा था
भूला नही हूँ मै तेरी वो सौगाते
तुझसे मिला जख्म कई दिन हरा रहा था
--अमोल सहारन
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Friday, January 7, 2011
वो लड़की घरेलु थी, मैं लड़का आवारा था
दोनों के दिल टूटने का तगड़ा इशारा था
वो लड़की घरेलु थी, मैं लड़का आवारा था
मरने का दरिया बीच जाते किसलिए
डूबने को अपने काफी ये किनारा था
नाराज़गी दुनिया से गलत नहीं मेरी
वो भी नहीं मिला जो हक जायज़ हमारा था
दुःख झेल लिए सारे ख़्वाबों में ही हमने
जिंदगी में तो सदा दिलकश ही नज़ारा था
वक्त बदलने से फितरत नहीं बदलती
दिल आज भी नाकारा है, ये कल भी नाकारा था
--अमोल सहारन
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वो रुलाता है, रुलाये मुझे जी भर के कतील
वो रुलाता है, रुलाये मुझे जी भर के कतील
वो मेरी आँख है, मैं उसको रुलाऊं कैसे?
--कतील शिफाई
खामखाह तो नहीं मौत से डर रहा हूँ मैं..
खामखाह तो नहीं मौत से डर रहा हूँ मैं.....
कोई तो है जिसके लिए नहीं मर रहा हूँ मैं.....
उसे अपने किये पे शर्मिंदा न होना पड़े...
इसलिए ये जिन्दंगी बसर कर रहा हूँ मैं
उसे अपने फैसले पे अफ़सोस ना हो...
इसलिए कामयाबी से अपनी डर रहा हूँ मैं...
मरने की तम्मना बची न जीने की आरज़ू रही....
बेमन से दोनों ही काम कर रहा हूँ मैं.....
तेरे दीदार की इच्छा लिए फिरता हूँ आँखों में..
काम नाजायज है लेकिन कर रहा हूँ मैं..
थोड़ी ताज़ा बयार लगे तो रूह को सकूँ मिले..
कब से यादो के इस बंद कमरे में सड रहा हूँ मैं....
कुछ दिन भले लगे थे ये प्यार महोबत के नगमे...
अब फिराक को ही फिर से पढ़ रहा हूँ मैं....
कल तुझे भूलने का वादा किया था खुद से...
आज फिर उस वादे से मुकर रहा हूँ मैं...
वो मिलता तो जाने क्या करता....
उसके बिना तो शायरी कर रहा हूँ मैं....
कुछ लिहाज़ मेरा नहीं तो अपने माझी का ही कर ले..
कुछ दिन तो तेरा हमसफ़र रहा हूँ मैं...
लोग कहते है मैंने ख़ुदकुशी की है...
मुझे लगता है की तेरे हाथो मर रहा हूँ मैं......
तेरे बिना भी ये दिल्ली अच्छी लगने लगे....
एक नाकाम सी कोशिश फिर कर रहा हूँ मैं...
--अमोल सहारन
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Monday, January 3, 2011
आज हुए से दीवाने ढूँढ़ते हैं ...
किताबों में फ़साने ढूँढ़ते हैं
नादाँ हैं वो गुज़रे ज़माने ढूँढ़ते हैं
जब वो थे तलाश-ए-जिंदगी भी थी
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढ़ते हैं
कल खुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था
आज हुए से दीवाने ढूँढ़ते हैं
मुसाफिर बेखबर है तेरी आँखों से
तेरे शहर में मैखाने ढूँढ़ते हैं
उनकी आँखों को यूं मत देखो......
उनकी आँखों को यूं मत देखो......
मत देखो यार...
उनकी आँखों को यूं मत देखो......
नए तीर हैं, निशाने ढूँढ़ते हैं
--अज्ञात
न तुझे छोड़ सकते हैं, तेरे हो भी नहीं सकते
न तुझे छोड़ सकते हैं, तेरे हो भी नहीं सकते
ये कैसी बेबसी है, आज हम रो भी नहीं सकते
ये कैसा दर्द है, पल पल हमें तडपाये है
तुम्हारी याद आती है, तो फिर सो भी नहीं सकते
छुपा सकते हैं और न दिखा सकते हैं लोगों को
कुछ ऐसे दाग हैं दिल पर जो हम धो भी नहीं सकते
कहा तो था छोड़ देंगे तुमको, फिर रुक गए
तुम्हे पा तो नहीं सकते, मगर खो भी नहीं सकते
हमारा एक होना भी नहीं मुमकिन रहा अब तो
जीयें कैसे के तुम से दूर हो भी नहीं सकते
--अज्ञात
मै उडा देता हूँ मजाक मे सँजिदगी
मै उडा देता हूँ मजाक मे सँजिदगी...
वो हो जाते है सँजीदा मेरे मजाक पे
--अमोल सहारन
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