Sunday, August 28, 2011

ये बार बार जो आंखों को मल के देखते हैं

अभी कुछ और करिश्में गज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहज़ा बदल के देखते हैं
तू सामने है, तो फिर क्यूँ यकीन नहीं आता
ये बार बार जो आंखों को मल के देखते हैं

--अहमद फ़राज़

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