Wednesday, September 1, 2010

अज़ीज़तर थी जिसे नींद शाम-ओ-वस्ल में भी

अज़ीज़तर थी जिसे नींद शाम-ओ-वस्ल में भी
वो तेरे हिज्र में जागा है उम्र भर कैसे
--अहमद फ़राज़

1 comment:

  1. डूबी हैं मेरी उँगलियाँ मेरे अपने ही खून में फ़राज़....
    ये कांच के टुकड़ों पर भरोसे की सजा है ...!!

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