Sunday, May 2, 2010

आज इस मोड़ पर लाये हैं उजाले मुझको

आज इस मोड़ पर लाये हैं उजाले मुझको
एक अँधेरे का समुन्दर है संभाले मुझको

जी में आता है तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम सब कह दूं
पर रोक लेते हैं लब-ए-इज़हार के ताले मुझको

कुछ तो तेरी राह-ए-गुज़र थी हमदम
कुछ सर-ए-राह मिले लूटने वाले मुझको

वो कब तलक मुझको अपनी पलकों पे सजाये फिरती
कर दिया उसने भी अश्कों के हवाले मुझको

कैद अपनी ही रिवायत की हदों में हूँ
कोई तो हो जो इस अँधेरे से निकाले मुझको

मुझको हर सिम्त अपने होने की बू आती है
कही मेरा होना ही मार ना डाले मुझको

--अज्ञात

Source : http://wafakadard.com/ahmed-farazs-collections/

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