गुंजाइश, कोई जगह भी नहीं थी
बिछड़ने की .. वजह भी नहीं थी
जाने कब कैसे गाँठ पड़ गई
कहीं कोई गिरह भी नहीं थी
जिस तरह समझी है तुमने
ये बात उस तरह भी नहीं थी
वही दलील दिल, दर्द .. दूरी की
और तो कोई जिरह भी नहीं थी
शिक़स्त ही वाबस्ता थी दोनों तरफ
मेरी हार उसकी फ़तह भी नहीं थी
डूबते गए सब शायरी में जिसमें
गहराई क्या सतह भी नहीं थी
चाँद-सितारों, नींद, ख्वाबों से सजा ली
जिस रात की कोई सुबह भी नहीं थी
पास-दूर, दोस्त-दुश्मन, अज़ीज़-गैर
वो हमारी किसी तरह भी नहीं थी
जायेगी देखना प्राण लेकर ही
वैसे पीड़ा इतनी असह भी नहीं थी
जो मायने निकाले गए मेरी शायरी के
उतनी समझ तो मुझे भी नहीं थी
बिखरे पड़े थे जहन में ‘अमित’ के
ख्यालों की कोई तह भी नहीं थी
--अमित हर्ष
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